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________________ आद्य-वक्तव्य ज्ञान आत्मा का गुण है। ज्ञानावरणादि कर्मों के निमित्त से उसमें हीनाधिकता हो सकती है तथापि आत्मा से ज्ञान का सर्वथा अभाव नहीं हो सकता। स्वभाव अपरिहार्य है। वस्तु स्वरूप को जानने के लिए प्राणिमात्र लालायित रहता है। ज्ञान प्राप्ति से जिस अनिर्वचनीय सुख का आनन्द प्राप्त होता है वह अन्य किसी कार्य के होने से नहीं प्राप्त होता। सम्यग्ज्ञान मोक्षमार्ग में बहुत बड़ा साधन है। बिना उसके मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। संसारी जन उसी केवलज्ञान की आभा के द्वारा जो भगवान् केवली की वाणी द्वारा प्राप्त होती है, अपनी आत्मा को आलोकित कर अपने को पवित्र करते हैं। इस काल में ज्ञानरविकी किरणे अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी द्वारा फैली हैं। उनकी शिष्य परम्परा में ६८३ वर्ष तक तो अंग-पूर्वसंबंधी ज्ञान मौखिक चलता रहा। उसके बाद बचा हुआ ज्ञान ग्रंथ रूप में निबद्ध हुआ। उस अहुत के आधार पर अनेक आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी से लेकर स्वपरकल्याण करते हुए उस धारा को आज भी अविच्छिन्न बनाए हुए हैं। यद्यपि दक्षिण प्रान्त में सदा से साधु परम्परा है और पंचम काल के अन्त तक रहेगी ऐसा भगवान् का वचन है तथापि उत्तर प्रान्त में इस परम्परा का अभाव था। श्री १०८ आचार्य शन्तिसागर महाराज ने इस काल में इस परम्परा को इस प्रान्त में चालू कर दिया है। उनमें से एक प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता श्री १०८ आचार्य कुन्थुसागर भी हैं। ये श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी के शिष्य हैं। अनेक ग्रन्थों के रचयिता हैं। मोक्षमार्गप्रदीप के अनन्तर मुनिधर्म प्रदीप और उसके बाद 'श्रावकधर्मप्रदीप' की रचना इन्होंने की है। संस्कृत भाषा में इतनी सरल रचना कर सकने का सौभाग्य बहुत कम महानुभावों को प्राप्त होता है। इस सरल ग्रन्थ की टीका और सरल होना चाहिए थी, पर वह सम्भव नहीं हो सकी, तथापि आचार्य श्री की आज्ञा से मैंने टीका लिखने का प्रयास किया है। भले हम उसमें यथोचित सफलता नहीं पा सके हों पर आचार्यश्री की आज्ञा का पालन मैं कर सका इसका मुझे सन्तोष है। मैं श्रावकाचारसम्बन्धी एक पुस्तक लिख रहा हूँ, तथापि वह अपूर्ण है। मुझे इस ग्रन्थ की टीका लिखने का सौभाग्य कैसे प्राप्त हुआ, और उसके लिखने की अन्तःप्रेरणा क्यों हुई? इसकी एक कहानी है। अन्तःप्रेरणा मेरे पिता सप्तम प्रतिमाधारी पूज्य ब्रगोकुलप्रसादजी संवत् १९८० विक्रमाब्द में स्वर्गवासी हुए। स्वर्गवासी शब्द का मैने व्यावहारिक शब्द प्रयोग की पद्धत्यनुसार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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