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________________ XVI चाहे वह इस रूप में न भी हो, अन्य किसी रूप में हो, पर पिताजी की जो इच्छा थी, आज्ञा थी, उसे पूरा करना ही चाहिए। यह तो कोई लौकिक कामना नहीं थी, पारमार्थिक कार्य भी यदि पूरा किया जासके तो इससे अधिक और क्या प्रमाद होगा? पर भाषा ढूंढारी लिखना मेरे वश की बात नहीं थी । अतः प्रेरणा उत्पन्न होती थी, पर उसकी पूर्ति नहीं हो पाती थी। लेखन का सौभाग्य विक्रमाङ्क २००० में दशलक्षणपर्व में शास्त्रप्रवचन के हेतु मुझे खण्डवा जैन पञ्चाचत का आमंत्रण मिला। मैंने १० दिन वहाँ प्रवचन किए। तदनन्तर मध्य के तीर्थों की यात्रा करते हुए इंदौर गया। इंदौर में हमारे ग्राम के एक सज्जन मिले और हमारा उनका विचार हआ कि वांसवाड़ा (वागड़प्रान्त) में श्री १०८ आचार्य कुन्थुसागर जी का चातुर्मास है वहाँ दर्शन हेतु चला जाय। हम दोनों वहाँ पहुँचे । वाँसवाड़ा में श्री मन्दिर जी में सभाभवन में ६००, ७०० श्रोता थे और आचार्य जी का संस्कृत वाङ्मय में उपदेश चल रहा था। मेरा प्रथम प्रसंग था जब कि उनके मुखारविन्द से मैं भाषण सुन रहा था और इससे अधिक आश्चर्य यह था कि वह संस्कृत भाषा में था। भाषा इतनी सरल थी कि उपस्थित जनता उसे समझ सके। जहाँ थोड़ी सी कठिनता महाराज समझते वहाँ हिन्दी भाषा में बोलने लगते थे। इस तरह उभय भाषा के संगम में चलने वाला आचार्य श्री का प्रवचन बड़ा ही हृदयग्राही था। जनता को देखकर मेरा अनुभव था कि वहाँ कम से कम १५०, २०० घर जैनों के होंगे। पूछने पर यह ज्ञात हुआ कि यहाँ केवल ३६ घर दिगम्बरों के हैं और ५० घर श्वेताम्बरों के हैं। जनता जो एकत्रित है उसमें शहर के पढ़े लिखे सुशिक्षित राजकर्मचारी, अध्यापक, वकील, डाक्टर आदि प्रमुख पुरुष हैं। प्रतिदिन आफिस कार्य के अनन्तर यही समय सबके लिए अनुकूल होने से आचार्यश्री का प्रवचन इसी समय शाम को ६ बजे होता है। आचार्यश्री का प्रभाव अचिन्त्य था । भाषण सुनने पर किसी को यह प्रतीत नहीं होता था कि वक्ता साधु किस धर्म का है और किस धर्म का उपदेश कर रहा है। जैनधर्म शब्द का प्रयोग किए बिना भी आत्मधर्म और गृहस्थ के कर्त्तव्यों का जिस सुन्दरता और आकर्षक ढंग से वे प्रतिपादन करते थे उससे उनकी सार्वजनीन हितभावना पद-पद पर व्यक्त होती थी। मतभेदों की या स्वमतप्रशंसा की गंध लाए बिना सद्धर्म का दृढ़ता से प्रतिपादन करनेवाला उपदेश मैने अपने जीवन में पहिली बार सुना। वह कला आश्चर्यजनक थी जिसके स्मरण मात्र से आज भी हृदय पुलकित हो उठता है। आचार्य महाराज का जीवन प्रारम्भ से ही उन्नतिशील था । ये कर्नाटक प्रान्त के ऐनापुर ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम सातप्पा ( शान्तात्मा) और माता का नाम सरस्वती था। इनका पूर्व नाम श्री रामचंद्र था। बाल्यकाल से ही उक्त गृहस्थ धार्मिक दम्पति ने उनमें धर्म के संस्कार उत्पन्न किए थे। केवल माता पिता की इच्छा से उन्होंने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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