SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैष्ठिकाचार १८५ अतः जिसकी उत्पत्ति भी महान् हिंसा से है तथा जिसका उपयोग भी महान् पापोत्पादक है उस मदिरा को देखने मात्र से व्रती पुरुष भोजन का त्याग कर देते हैं। इसी प्रकार जीवों का निर्दयता पूर्वक संहार कर ही मांस बनाया जाता है। निर्दय पुरुष उस मांस से अपना उदर भरते हैं और उसे श्मशान भूमि बनाते हैं। मांस भी उत्पत्ति रूप से पापमय है और सदा असंख्य जीवों की उत्पत्तिरूप होने से उनकी भी हिंसा का हेतु है। दयापर अहिंसक श्रावक उस अपवित्र पदार्थ को देखकर भी भोजन का त्याग कर देता है। ___ दर्शन का तृतीय अपवित्र पदार्थ हड्डी है। यह भी शरीर का अंग है। शरीर के सभी अंग अपवित्र हैं। सप्त साधु और उपधातु अपवित्रता के परमाणुओं से ही बने हैं। उनका दर्शन भी भोजन का अन्तराय है। बहती हुई रक्त की धारा, शरीर के ऊपर से तत्काल निकाला हुआ कच्चा चमड़ा, मरा हुआ पञ्चेन्द्रिय जीव का शरीर, क्षुधापीड़ित व्यक्ति या पशु और मल-मूत्रादि अपवित्र पदार्थ ये सब भोजन के समय अन्तराय के कारण दर्शनमात्र से माने गए हैं। इन्हें देखकर व्रती को भोजन का त्याग कर देना चाहिए।१। शुष्कचर्म-नख-केश-पक्षि-पक्षासंयमिस्त्रीपुरुष-व्रतभंग-रजस्वलास्त्री-पञ्चेन्द्रियपशु मल-मूत्रशंका, -शवस्पर्शन, मृतजीवनास,-केशनिर्गमन-स्वशरीरप्राणिपीडनादयः स्पर्शनान्तराया।।२।। इतने पदार्थों के स्पर्श होने पर भोजन का अन्तराय मानना चाहिए-सूखा चमड़ा, नख, कम्बल आदि केशवस्त्र, पक्षी, पक्षी के पंख, शीलरहित स्त्री, पुरुष (शीलरहित), व्रतभंग करनेवाली स्त्री या पुरुष, रजस्वला स्त्री, पञ्चेन्द्रिय पशु कुत्ता, बिल्ली आदि, मुर्दे का स्पर्श, ग्रास में यदि कीटाणु मृत हो तो, ग्रास में यदि बाल हो तो भोजन त्यागना चाहिए। अपने शरीर में यदि असह्य पीड़ा हो या दूसरे प्राणी का असह्य पीड़ा हो अथवा अपने शरीर से मूत्र, मल आदि के स्खलन हो जाने की शंका हो गई हो तो भी भोजन का अन्तराय है। इस प्रकार ये स्पर्शनसंबंधी भोजनान्तराय हैं।२। मरण-रोदनाग्निदाह-मारण-धर्मात्मोपर्युपसर्ग-मनुजकर्णनासिकादिच्छेदन-जिन-बिम्बजिनायतनोपसर्ग-पापवचनादयः श्रवणान्तरायाः।।३।। भोजन के समय यदि किसी का मरण सुन पड़े, करुणाजनक विलाप सुने, कहीं अग्नि लग गई, घर जल रहे हैं, पशु-पक्षी मनुष्य जले जा रहे हैं इत्यादि वचन सुनाई पड़े, लोग लूटपाट मारकाट कर रहे हैं, ऐसा सुनाई देवे। किसी धर्मात्मा पुरुष पर कोई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy