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________________ १८६ श्रावकधर्मप्रदीप उपसर्ग आया हुआ सुने , या ऐसा शब्द सुनाई देवे जो अत्यन्त करुणाजनक हो जैसे इसकी नाक काट लो, कान काट लो, मस्तक छेद दो इत्यादि अथवा कहीं जिनमंदिर जिन प्रतिमा पर उपसर्ग या अपमानजनक वचन सुनाई देवें या डाका पड़ने लुट जाने व नारी अपहरण आदि पाप के वचन सुनाई पड़ें तो इन बातों के श्रवणमात्र से व्रती को भोजन का त्याग कर देना चाहिए। भोजन के अन्तरायों का यह तात्पर्य नहीं है कि वह भोजन छोड़कर पश्चात्ताप करता हुआ चुप बैठ जाय अथवा अन्तराय करनेवालों पर रोष करे जो इन्होंने मुझे भोजन भी न करने दिया। ये सब काम तो अन्तराय न पालने के बराबर हैं। अन्तराय पालनेवाला अन्तराय आने पर भोजन का त्याग करता हुआ भी अपने पापकर्म का उदय समझकर किसी पर रोष नहीं करता। तथा उक्त कारणों के आने पर तत्काल उन उपसर्गों को दूर करने, लोगों के कष्ट दूर करने का प्रयत्न करता है। मार-काट, लूट-पाट, अपहरण, धर्मात्मा पर उपसर्ग, जिनमन्दिर और जिनप्रतिमा का उपसर्ग आदि श्रवण कर जो केवल भोजन का त्याग कर बैठ जाता है वह कापुरूष कदाचित् भी व्रती श्रावक नहीं है, किन्तु उसे तत्काल इन उपसर्गों को अपनी शक्ति भर दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये। तभी वह व्रती है और उसका अन्तराय का पालन सार्थक है, अन्यथा नहीं। __ भोजन के अन्तराय दर्शन-स्पर्शन-श्रवण के सिवाय और भी शास्त्रकारों ने शास्त्रान्तरों में प्रतिपादित किए हैं उनका भी पालन करना चाहिए। जैसे-यदि प्रमाद से त्याज्य वस्तु खाने में आ जाय तो तत्काल भोजन का त्याग करना चाहिये। उदाहरणार्थ कोई व्रती नमक रस का त्याग किए है। अब कदाचित् भोजन में कोई नमकवाली वस्तु आ गई तो उसे तत्काल भोजन का अन्तराय मानना चाहिये। भोजन में यदि जीवित भी जीव कीटाणु आ जाँय जिनका सहज ही अलग करना सम्भव न हो तो भी भोजन का अन्तराय मानना चाहिए। तथा भोजन के शुद्ध पदार्थों में भी यदि भोजन के समय दुष्ट संकल्प आजाय अर्थात् कोई पदार्थ ऐसा मानसिक संकल्प पैदा कर दे जो यह भोज्य पदार्थ मांस जैसा है या अण्डे जैसा मालूम पड़ता है, या प्राणी के सिर जैसा या पैर जैसा है तो वह पदार्थ भी व्रती के किए अभोज्य है। सारांश यह है कि दया उत्पन्न करनेवाले, अपवित्रता लानेवाले और व्रतभंग करानेवाले कारणों के आने पर भोजन का अन्तराय मानना व्रती के लिए उचित है तथा पाक्षिक व दार्शनिक को भी यथायोग्य अन्तराय पालने चाहिये।३। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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