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________________ १८४ श्रावकधर्मप्रदीप करता। उसका अपनी विषय वासनाओं पर इतना नियंत्रण है कि वह बुभुक्षित होने पर भी कभी अमर्यादित पदार्थों का, परित्यक्त पदार्थों का, अनीति से प्राप्त पदार्थों का तथा हिंसा-चौर्य आदि पापों से कमाए हुए पदार्थों का भक्षण नहीं करता। शुद्ध, शास्त्रानुमोदित, हिंसादि पापों से दूर व न्यायोपार्जित पदार्थों का ही सेवन करता है। इस प्रकार के शुद्धाहार के समय यदि उसे हृदयद्रावक मांसादि पदार्थों का दर्शन हो जाय तो उनके दर्शन मात्र से वह अपने शुद्धाहार का भी तत्काल के लिए त्याग कर देता है। वह दयापरिणामी उस हिंसा तथा निर्दयक्रिया द्वारा कृत पदार्थ को देखने मात्र से दुःखी होता है। पर-दुःख-कातरता उसका गुण है। इसी प्रकार मृत पुरुष, स्त्री या पशु आदि के शरीर का अथवा मृत शरीर के अंशभूत चर्म, नखादि का स्पर्श होने पर प्राप्त अपवित्र दशा में भी वह भोजन का परित्याग करता है। श्रवण सम्बन्धी भी अन्तराय होता है। जब भोजन करने वाला व्रती भोजन के समय किसी का करुणापूर्ण रुदन सुनता है या मरण सुनता है, अग्निदाह या शस्त्रघात आदि के शब्द सुनता है तब वह भोजन त्याग कर तत्काल अग्नि बुझाने का, शस्त्राघात दूर करने का व दुःखी को सान्त्वना देने का सत्प्रयत्न करता है। दूसरों को दुःखी अवस्था में छोड़कर वह चैन से भोजन करते नहीं बैठता, यह उसका अहिंसा गुण है। अपनी अन्तरङ्ग मानसिक शुद्धि के लिए तथा बाह्य में शारीरिक शुद्धि के लिए, लोक कल्याण के लिए और दयाधर्म के प्रतिपालन के लिए धर्मात्मा श्रावकों को प्रेमपूर्वक भोजन के अन्तरायों का पालन करना चाहिए।१४४।१४५। अथान्तरायभेदाः कथ्यन्ते ___ अथ अन्तराय के भेदों को गिनाते हैंमदिरा-मांसास्थि-रक्तधारार्द्रचर्म-मृतपञ्चेन्द्रियजीव-क्षुधाहतपशु-मलमूत्राणि इति दर्शनस्यान्तरायाः।।१॥ मदिरा, महुआ और द्राक्षा आदि अनेक पदार्थों को सड़ाकर बनाई जाती है। हजारों लाखों कीड़े उसमें प्रत्यक्ष उत्पन्न हो जाते हैं। उन सबको घोलकर व आग पर औंटाकर शराब या मदिरा बनाई जाती है। मदिरा नशा करती है, मनुष्य की सुधि-बुधि भुला देती है, और हितमार्ग से दूरकर अहित मार्ग में लगा देती है। ये सब दुर्गुण तो हैं ही, पर यह उन असंख्य प्राणियों के रक्तमांसमय पिण्ड का निचोड़ा हुआ रस है जो सड़ने के समय उसमें पड़ चुके थे और अब भी जिसमें असंख्य कीटाणु पैदा होते व मरते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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