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________________ नैष्ठिकाचार १८३ अपना पाण्डित्य प्रदर्शनके लिए शास्त्रोंका पठन-पाठन अनुचित है। अनेक विद्वान् दूसरे विद्वानोंके ज्ञानोत्कर्ष को मात्सर्य या ईर्षा के कारण सहन नहीं कर सकते, अतः वे कपट व वाद-विवाद से अपना पाण्डित्य प्रदर्शनमात्र कर अपनी कषायों का पोषण करते हैं। उनका वह शास्त्रपठन स्वाध्याय के नामको प्राप्त नहीं कर सकता। वह शास्त्रग्रहण शस्त्रग्रहण ही है जो केवल परको नीचा दिखाने मात्र को है। उपर्युक्त कथन से यह अच्छी तरह स्पष्ट हो गया कि जो मिथ्यात्ववर्द्धक न हों, असदाचार के पोषक न हों, हिंसादि महापापों के उपदेशक न हों, कलह वितण्डावाद को उत्पन्न करनेवाले न हों तथा कामादि विकारों के वर्द्धक न हों उन लौकिक शास्त्रों का पठन-पाठन निषिद्ध नहीं है। तत्त्वज्ञान की प्राप्ति में सहायक ग्रन्थान्तरों का इसके बाद भक्तिपूर्वक पढ़ना भी स्वात्मदर्शन के लिए ही होता है।१४३। अन्तरायकथनम् प्रश्न:-श्राद्धानामन्तरायाः मे कति सन्ति गुरो बद। श्राद्धानाम् श्रावकाणां भोजने कति अन्तरायाः सन्ति? हे गुरो! मे वद। श्रद्धावान् व्रती श्रावकों के भोजन सम्बन्धी अन्तरायों का विवेचन कृपाकर गुरुवर्य मुझे बतावें (अनुष्टुप्) दर्शनस्य भवन्त्यष्टावन्तराया जिनागमे । स्पर्शस्य विंशतिः प्रोक्ताः श्रोत्रस्य भयदा दश ।।१४४।। बाह्यान्तरङ्गशुद्धयर्थं धर्मज्ञैः श्रावकैः सदा। पूर्वोक्ताः त्रिविधाः पाल्या अन्तरायाः प्रयत्नतः।।१४५।। दर्शनस्येत्यादिः- तिनः श्रावकस्य दयापरस्य हृदि ग्लानिकारकाः संक्लेशकारकाच भोजनसमये दर्शनस्याष्ट अन्तरायाः, स्पर्शसंबंधिनो विंशतिरन्तरायाः, शब्दश्रवणसंबंधिनच किल दश अन्तरायाः सन्ति। मिलित्वा अष्टत्रिंशदन्तराया भवन्ति। शुद्धाहारभोजिनः श्रावकस्य भोजनसमये यदि परित्यक्तपदार्थानां मदिरामांसादीनां दर्शनं चर्मादिपदार्थानां स्पर्शनं रोदनादिहृदयद्रावकशब्दानां श्रवणं वा स्यात् तदा स अन्तराय इति मत्वा भोजनं परित्यजति। एवं उभयशुद्ध्यर्थं धर्मज्ञैः प्रयत्नतः त्रिविधा भोजनान्तरायाः पालनीयाः।।१४४।१४५।।। दयावान् श्रद्धावान् सदाचारी व्रती श्रावक शुद्ध आहार के द्वारा ही अपनी क्षुधा मेंटता है। यद्वा तद्वा शुद्धाशुद्ध आहार के द्वारा वह अपनी इन्द्रियलिप्सा को पूरी नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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