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________________ श्रावकधर्मप्रदीप पुण्य-पाप, बंध - मोक्ष, और जीव- कर्म, आदि की सम्यक् व्यवस्था, प्रमाण, नय और निक्षेप का विशद विवेचन, अनेकान्तवाद द्वारा सर्वथैकान्तवादोंका युक्ति और आगमादि प्रमाणोंके आधार पर खण्डन आदि इस अनुयोगमें वर्णित है। स्वतन्त्र सत्तावाला आत्मा परभावोंसे भिन्न अनंत गुणोंका पिंड स्वरूप अपने स्वरूपों में ही रमण करनेवाला है। वह चैतन्य स्वरूप विमुक्त पुद्गलादि जड़ पदार्थोंसे सर्वथा भिन्न है। इस तरह स्वपरविवेक स्वरूप अध्यात्मविद्याके प्रतिपादक द्रव्यानुयोग शास्त्रका अन्तमें अन्तिम अनुपम सुख प्राप्तिके लिए अवश्य पठन-पाठन करना चाहिये। इस क्रमसे चारों अनुयोगोंका सम्यक् स्वाध्याय स्वच्छंद प्रवृत्तिको दूर कर व्रताचरणकी वृद्धि करता है जिससे शान्तिप्रदायिनी मुक्तिरूपी सखी का समागम प्राप्त होता है । १४१ ।१४२ । न्यायव्याकरणादिशास्त्राणां पठनम् प्रश्नः - न्यायव्याकरणादीनां स्वाध्यायः स्यात्कदा गुरो ? यदि चतुरनुयोगानामेव पठनं कार्यं तदा न्यायव्याकरणादिविद्यानां पठनं कदा स्यात्? हे गुरो! कथय मे। १८२ हे गुरुदेव ! यदि चारों अनुयोगों का पठन-पाठन ही श्रेष्ठ है तो न्याय व्याकरण तथा साहित्यादि शास्त्रोंको कब पढ़ना चाहिये, कहिए - (अनुष्टुप्) षड्द्रव्यसप्ततत्त्वानां न्यायव्याकरणस्य च । पठनं पाठनं भक्त्या यतः स्यात् स्वात्मदर्शनम् ।। १४३ ।। षडित्यादिः– न्यायव्याकरणादयस्तु चतुरनुयोगशास्त्रप्रतिपादितषद्रव्याणां सप्ततत्त्वानां स्वरूपपरिज्ञानाय एव भक्त्या पठनीयाः । स्वात्मदर्शने उपयोगिनां अन्येषामपि शास्त्राणां पठनं पाठनमपि न प्रतिषिद्धमस्ति । केवलं स्वपाण्डित्यप्रदर्शनार्थं मात्सर्येण परोत्कर्षपराभवेच्छया ब्याजेन वादेन पाण्डित्यप्रदर्शनेन वा यत् न्यायव्याकरणादिशास्त्राणामध्ययनं क्रियते न तत् स्वाध्यायसंज्ञां लभते। अत एव सुनिश्चितमेतत् यत् स्वात्मोपकारकस्य शास्त्रान्तरस्यापि पठने न कश्चिद् दोषोऽस्ति यन्नैव स्यान्मिथ्यात्वपोषकं कषायवर्द्धकं विषयरतिदायकं वा । १४३ । इन चारों अनुयोगोंमें प्रतिपादित छह द्रव्य व सप्त तत्त्व आदिके ज्ञानको उत्पन्न कराने में हेतुभूत न्याय, व्याकरण, साहिन्य, कोष, अलंकार व छन्द आदि विद्याओंका पाठन-पाठन निषिद्ध नहीं है, भक्तिपूर्वक उनका भी यथायोग्य पठन-पाठन करना चाहिए। उपयोगी विद्याओंकी सहायतासे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति की जा सकती है। केवल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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