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________________ नैष्ठिकाचार १८१ क्या करना चाहिए, कौन-कौन सी भावनाएँ व्रत में गुणवृद्धि कर सकती हैं और किस जिस व्रत के कौन-कौन अतीचार हैं जो व्रत को मलिन करते हैं। मानसिक अपवित्रता यदि एक बार हो जाय तो वह अतिक्रम दोष है। यदि बार बार मानसिक अपवित्रता हो जाय तो वह दुःशील होने से व्यतिक्रम है। यदि व्रत एकदेश या एक बार प्रमाद से भंग हो जाय तो अतीचार है और यदि सर्वदेश या अनेकबार जानबूझ कर व्रत भंग किया जाय तो अनाचार है। इस प्रकार अतिक्रमादि का स्वरूप तथा दोषमुक्त होने के लिए दश दोषरहित प्रायश्चित्त का विधान प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, समता, वन्दना, स्तुति, कायोत्सर्ग आदि सम्पूर्ण विधि विधान जहाँ वर्णित है वह सुखदायक चरणानुयोग शास्त्र है जिसका स्वाध्याय आत्महित के लिए सदैव करना चाहिए।१४०। अथ द्रव्यानुयोगपठनम्-- चरणानुयोग के अनन्तर पठनीय द्रव्यानुयोगका स्वरूप वर्णन व उपदेश-- (अनुष्टुप्) द्रव्यानुयोगशास्त्रस्य स्वपरबोधकस्य च । पठन पाठनं कार्यमन्ते सर्वसुखप्रदम् ।।१४१।। पूर्वोक्तक्रमतः पाठ्यास्तेऽनुयोगा जिनोदिताः । स्वैरवृत्तिर्यतो न स्यात् मोक्षश्रीः शान्तिदा सखी ।।१४२।।युग्मम्।। द्रव्येत्यादि:- जीवाजीवादिषड्द्रव्याणां नवपदार्थानां पञ्चास्तिकायानां सप्ततत्त्वानां स्वरूपं द्रव्यानुयोगशास्त्रेषु प्रतिपादितमस्ति। युक्त्यागमाभ्यां अनेकान्तवादाश्रयेण जीवादीनां स्वरूपं तत्तद्गुणपर्यायाणाम्भेदाच तत्र विस्तरतो निरूपितास्सन्ति। तस्माद् द्रव्यानुयोगपठनेन स्वात्मनः स्वतंत्रसत्ताकस्य स्वात्मभिन्नानां पुद्गलादीनाञ्च सम्यग्बोधो भवति। स्वपरबोधसम्पन्न एव मुक्तिसुखं लभते। तस्मात्कारणात् सर्वसुखप्रदं व्रव्यानुयोगस्य पठन पाठनञ्च अन्ते अनुयोगत्रयपठनानन्तरं कार्यम्। एवंप्रकारेण स्वाध्यायकरणेन स्वैरवृत्तेरभावात् शान्तिदायिनी मोक्षश्रीः सखी इव भवति।१४१।१४२। द्रव्यानुयोग शास्त्रोंमें जीवाजीवादि छह द्रव्य, नव पदार्थ, अस्तिकाय, और सात तत्त्वादिका उत्तम स्वरूप युक्ति और आगमके आधारसे विविध गहन नय स्वरूप अनेकान्तवादके आश्रयसे वर्णित किया है। साथ ही उन द्रव्यों के अपरिमित गुणों और पर्यायोंका भी विशद विस्तृत वर्णन वहाँ किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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