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श्रावकधर्मप्रदीप
गुणस्थानों, मार्गणास्थानों, जीवसमासों तथा बीस प्ररूपणाओं का स्वरूप भलीभाँति ज्ञात हो जाता है।
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साधारणतया करण शब्द का अर्थ जीव के परिणाम भी है। हमें जीव के परिणामों के भेदों का स्वरूप आत्मस्वरूप के परिणाम के लिए जानना अत्यावश्यक है। उनकी यथोचित सम्हाल के बिना धारण किया हुआ चारित्र प्रायः द्रव्यचारित्र ही नाम पाता है। अतः सदाचार पालने से स्वात्महित वांछक पुरुषों का कर्तव्य है कि सदाचार के नियमों के साथ ही या उसके पूर्व ही करणानुयोग शास्त्रों का मनन करें। इसके स्वाध्याय से सर्व प्राणियों के लिए हितकर्त्ता योग्य ज्ञान उत्पन्न होता है और ज्ञान सम्पादन से ही मनुष्य जन्म की सफलता है। १३८।१३९ ।
चरणानुयोगपठनम्
अथ चरणानुयोगः पाठ्यः ।
इसके बाद चरणानुयोग शास्त्र पठनीय है, यह बताते हैं
(वसन्ततिलका)
पाठ्यं सदैव सुखदं चरणानुयोग
शास्त्रं सुसाधुगृहिणां व्रतमण्डितानाम् ।
शीलव्रताचरणबोधकमेव भक्त्या
स्वात्मा भवेद् भुवि यतो व्रतशीलधारी । । १४० ।।
पाठ्यमित्यादिः - प्रथमानुयोगकरणानुयोगशास्त्रयोः स्वाध्यायानन्तरं चरणानुयोगशास्त्रं पठनीयम् । तच्छास्त्रं शीलानां व्रतानाञ्च प्रतिबोधकमस्ति । देशव्रताराधकानां गृहिणां महाव्रतिनां साधूनाञ्च किमस्ति कर्तव्यम्, कानि कानि तेषां व्रतानि, कथं भवति व्रतानां रक्षणम्, के दोषाः सन्ति ये व्रतानि मलिनीकुर्वन्ति इत्यादिप्रकारकं गृहिधर्मः साधुधर्मश्चापि यत्र वर्णितो विस्तरेण तच्छास्त्राध्ययनेनैव आत्मा व्रतशीलधारी भवति अतएव सदैव सुखदायकं चरणानुयोगशास्त्रं पाठ्यम् ।१४०|
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प्रथमानुयोग और करणानुयोग शास्त्रों के स्वाध्याय करने के बाद देशव्रतधारी गृहस्थ और महाव्रती साधुओं के आचार क्रम का प्रतिपादक चरणानुयोग शास्त्र पढ़ना चाहिए। इस शास्त्र का अध्ययन करनेवाला आत्मा शील- व्रत का धारी हो जाता है, कारण इस अनुयोग के शास्त्रों में यह विषय बहुत स्पष्टता के साथ बताया गया है कि श्रावक के कितने भेद हैं, कितनी प्रतिमाएँ व्रताचरण की वृद्धि के लिए हैं, क्या उनका स्वरूप है, साधु के व्रत कौन-कौन से हैं, शील क्या है, उनके भेद कौन-कौन हैं, व्रतों के रक्षार्थ
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