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________________ नैष्ठिकाचार १७९ प्रथमानुयोग में पुण्यात्माओं का पुण्य चरित्र तथा उसका उत्तम फल बताया गया है। इतना ही नहीं, बल्कि जो पापात्मा हैं उन्होंने कैसे-कैसे कटुक फल भोगे हैं, उनका भी चरित्र उनमें अङ्कित है। अतः दोनों चरित्रों के उदाहरणों को देखकर लोग पाप से भयभीत होते हैं तथा धर्म के मार्ग में लगते हैं। अतएव शान्ति का प्रदान करनेवाला, बोधदायक और उत्तम पुरुषों के चरित्र का प्रतिपादकप्रथमानुयोग अवश्य पढ़ना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य की प्रवृत्ति अशुभ अर्थात् पाप के कार्यों से विरक्त होकर पुण्य अर्थात् धार्मिक शुभ कर्मों में स्वयमेव संलग्न होती है, अतः सर्वप्रथम प्रथमानुयोग का ही स्वाध्याय कल्याणप्रद है।१३६।१३७। करणानुयोगपठनम् प्रश्न:-प्रथमानुयोगपठनानन्तरं किं पाठ्यम् । प्रथमानुयोग शास्त्र के स्वाध्याय के बाद किस अनुयोग का स्वाध्याय करना चाहिये? आगे उसका स्पष्टीकरण करते हैं (अनुष्टुप्) सत्करणानुयोगादि शास्त्रं पाठ्यं शिवप्रदम् । पश्चाद्योग्यं भवेज्ज्ञानं सर्वसत्त्वहितङ्करम् ।।१३८।। लोकालोकस्वरूपस्य बोधकं तत्त्वतो नृणाम् । ज्ञात्वेति क्रमतः पाठ्यं जन्म स्यात् सफलं यतः ।।१३९।।युग्मम्।। सदित्यादि:- प्रथमानुयोगपठनानन्तरं करणानुयोगशास्त्राणामेव पठनं कर्त्तव्यम् । एतेनानुयोगेन लोकालोकयोः स्वरूपमवगम्यते।जीवानामुत्पत्तिस्थानः कर्मणां कार्यम्, कालस्य परिवर्तनं, चतुर्गतीनां स्वरूपं, कर्मनिमित्तेन जीवपरिणामभेदाः, गुणस्थान-मार्गणास्थान-जीवसमासानां स्वरूपं, विंशतिप्ररूपणाभेदाचेत्यादि पदार्थानां यत्र सम्यनिरूपणमस्ति तत् करणानुयोगशास्त्रमित्युच्यते। करणशब्दस्य जीवपरिणामवाचित्वात् करणानुयोगे जीवपरिणामानामेव विशेषतो वर्णनमावश्यकम् । स्वपरिणामभेदमनवगम्य केवलं द्रव्यरूपेण यदाचरणम्भवति तत्केवलं द्रव्यचारित्रसंज्ञामेव प्रायः लभते तस्मात्सदाचारैः स्वात्मकल्याणमिच्छता सदाचारस्वीकरणात्पूर्वमवश्यमेव करणानुयोगशास्त्राणां स्वाध्यायः कर्तव्यः। एतत्स्वाध्यायतस्सर्वसत्त्वहितङ्करं योग्यं ज्ञानं समुत्पद्यते। ज्ञानसम्पादनत एव मानवजन्मनस्साफल्यमस्ति। १३८।१३९। प्रथमानुयोग के अन्तर करणानुयोग शास्त्रों का पठन-पाठन करना श्रेयस्कर है। इस अनुयोग के स्वाध्याय से हमें लोक और अलोक के स्वरूप का, युगों के परिवर्तन का, जीव के परिणामों का, कर्म के प्रभाव का, जीवों की उत्पत्तिस्थान का, चतुर्गति का, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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