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________________ १६६ श्रावकधर्मप्रदीप तथा क्रमशः यावत् कर्मनाशः न स्यात् तावत् सांसारिकसुखं लब्ध्वा दातारस्ते क्रमशः शान्तिदं शान्तिप्रदायकं मोक्षपत्तनं प्रयान्ति।१२४।१२५। क्षमा की मूर्ति- परमदिगम्बर, इच्छारहित, समभावी, अपने हाथ में ही आहार करनेवाले, परिग्रह रहित, लोभरहित, इन्द्रियविजयी, किसी से याचना न करनेवाले, वन के एकान्त प्रदेश में निवास करनेवाले, परम ब्रह्मचारी, सर्व जीवों के हितवाञ्छक, सम्यग्दृष्टि महापुरुष कहे जाते हैं। सच्चे साधुओं के ये ही लक्षण हैं। इनको दान देना परम पुण्यदायक है। ये सुपात्रों में उत्तम सुपात्र हैं। इनको अत्यन्त श्रद्धा भक्ति और विनय के साथ शास्त्रोक्त नवधा भक्तिपूर्वक विधिवत् शुद्ध आहारादि देना उचित है। इनके लाभ न होने पर व्रती श्रावक मध्यमपात्र को और उसका भी लाभ न मिले तो धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि जघन्य सुपात्र को दान देना चाहिए। उत्तमपात्र में दान का फल उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न होना है, मध्यमपात्र के दान का मध्यमभोग भूमि और जघन्य पात्र में दान का फल जघन्य भोगभूमि है। वहाँ के सुख भोगकर भोगभूमि में जीव निश्चित स्वर्गगति पाते हैं। स्वर्ग-सुखों को अपनी आयुप्रमाण भोगकर उत्तम मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। चक्रवर्ती की भी विभूति को प्राप्त करते हैं और अन्त में सर्व कर्मों का नाश कर परम शान्ति और सुख का स्थान जो मोक्षरूपी नगर है उसे सदा के लिए प्राप्त करते हैं, यह दान का फल है। ऐसा जानकर गृहस्थों को प्रयत्न पूर्वक सत्पात्रों में प्रतिदिन दान देना चाहिए।१२४।१२५। प्रश्न:-न ददाति धनाढयोऽपि दानं स कीदृशो वद। जो धनी होकर भी लोभादि के कारण दान नहीं करता वह कैसा है, कहिए (उपजातिः) दानं धनाढ्योऽपि ददाति यो न गृही स मूर्खः सुखशान्तिबीजम् । आगामिकालस्य भिनत्त्यवश्यं नास्त्यत्र शङ्का तिलमात्रतोऽपि।।१२६।। दानमित्यादिः- धनाढ्योऽपि पुराकृतपुण्यकर्मोदयेन सर्वविभवसम्पन्नोऽपि यः मोही गृही विवेकरहितो भोगान् भुंक्ते किन्तु सुखशान्तिबीजमुत्तमदानं न ददाति। स आगामिकालस्य आगामिनि काले सुखशान्तेः बीजं भिनत्ति भाविजन्मनि अशान्तः दुःखी दरिद्री च भवति। नास्यत्यस्मिन् विषये तिलमात्रतोऽपि शङ्का।१२६। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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