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________________ नैष्ठिकाचार १६५ जब बालक गर्भ में आता है उसी समय से माता के विचारों का प्रभाव उसपर पड़ता है, ऐसा प्रत्यक्ष देखा जाता है कि अभिमन्यु जब माता के गर्भ में था तब चक्रव्यूह में प्रवेश करने की तथा उसे तोड़ने की कथा अर्जुन द्रौपदी से कह रहे थे। वह कथा द्रौपदी के श्रवण के साथ साथ बालक पर भी असर कर रही थी। जब बालक जन्मा और १६ साल का हुआ तो कौरव-पाण्डवों के युद्ध में अर्जुन की अनुपस्थिति में अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में प्रवेश किया। जब कि उसने इस विषय की शिक्षा कहीं पाई नहीं थी, केवल गर्भस्थ अवस्था में ही माता ने सुनी थी, उतने से ही इसे ज्ञात था। यह कथा पुराणों में है। माता के गरम शीत आहार का बालक के शरीर पर असर पड़ता है यह सब लोग जानते हैं। इसी से गर्भवती स्त्री को बालक की रक्षा के अभिप्राय से बहुत सम्हाल कर रखते हैं। इससे यह सहज सिद्ध है कि गर्भ से लेकर ही यदि बालक को सुसंस्कृत किया जाय तो उसकी प्रवृत्ति धार्मिक होगी और वह पाप क्रियाओं से निवृत्त होगा।शुभप्रवृत्ति मोक्ष का भी परम्परा कारण बन जाती है। यह बात जगत् में प्रसिद्ध है। इसलिए प्रयत्न पूर्वक बालकों के संस्कार अवश्य करने चाहिए।१२२/१२३। प्रश्न:-कस्मै देयं गुरो दानं तत्फलं वा मुदा बद। हे गुरूदेव गृहस्थ का धर्म-दान, पूजा, शील और तप के भेद से सामान्यतः चार प्रकार का बताया गया है। उसमें यह जानना है कि दान किसे देना चाहिए और उसका क्या फल है। कृपाकर कहें (अनुष्टुप्) यथायोग्यं क्षमाकर्त्रे नवधाभक्तिपूर्वकम् । अन्येभ्यश्च सुपात्रेभ्यो दानं देयं चतुर्विधम् ।।१२४।। तहानाच्चक्रवर्त्यादेः सुखं लब्ध्वा यथाक्रमम् । दातारः शान्तिदं नित्यं प्रयान्ति मोक्षपत्तनम् ।।१२५।।युग्मम्।। क्षमायाः मूर्तिः परमदिगम्बरः निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रः निष्परिग्रहः निर्लोभः वांछाविरहितः वनवासकः परमब्रह्मचारी सर्वहितवांछकः सम्यग्दृष्टिः इत्युच्यते। एतल्लक्षणैः खलु साधुंपरिज्ञाय तस्मै क्षमाकर्ते उत्तमपात्राय नवधाभक्तिपूर्वकं चतुर्विधं दानं देयम् । तदलाभे तु अन्येभ्यः सुपात्रेभ्यः मध्यमपात्राय धर्मात्मने सम्यक्त्ववते दानं देयं। तस्य फलं किमिति प्रश्ने सति उत्तरयति-यत् सुपात्राय ये दानं प्रयच्छन्ति ते भोगभूमौ उत्तमसुखमवाप्नुवन्ति। उत्तमपात्रदानस्य फलं उत्तमभोगभूमिः। मध्यमपात्रदानस्य फलं मध्यमभोगभूमिः। जघन्यपात्रदानस्य तु फलं जघन्या भोगभूमिः। तदनन्तरं निश्चिता स्वर्गप्राप्तिः। स्वर्गात्प्रच्युत्य उत्तमोत्तमपुरुषेषु ते उत्पद्यन्ते। चक्रवर्त्यादिविभूतिञ्चानुभवन्ति। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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