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________________ नैष्ठिकाचार १६७ सांसारिक सुख और शान्तिदायक सामग्री का संयोग इस जीव को अपने पूर्वकृत पुण्योदय से प्राप्त होता है। यह जीव संसार में सुख, दुःख, सम्पत्ति, दारिद्र और ऐश्वर्य, शिष्ट या दुष्ट समागम, कीर्ति-अपकीर्ति, मित्र-शत्रु, इष्ट संयोग-वियोग, भवन-वन आदि साता या असातादायक सामग्री का प्राप्ति अपने पुण्य और पाप कर्म के उदय से ही प्राप्त करता है। पुण्योदय के अभाव में प्राप्त सुख सामग्री भी क्षणकाल में विलीन हो जाती है। इस सत्य का ज्ञान जिनको नहीं और जो अहंकार वश सातासामग्री की प्राप्ति का कर्ता स्वयं को मानता है वह अविवेकी गृहस्थ मोहान्ध है। उसे वस्तुतत्त्व का किञ्चित् भी बोध नहीं है। वह भाग्यहीन अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी पटकता है। उसे यह ज्ञान नहीं है कि उत्तम सत्पात्रों के दान के फल से ही उस सातिशय पुण्य का बन्ध होता है जिससे यह साधारण विभव की क्या गणना इन्द्र और चक्रवर्ती की विभूति भी चरणों में लोटती है। वह उस मूर्ख की तरह है जो मूल की पूँजी खा ले और भविष्य के लिये कोई उद्योग न करे। अथवा उस मूर्ख किसान की तरह है जो बीज के योग्य धान्य को योग्य समय पर योग्य भूमि में वपन नहीं करता और उसे खाकर ही अपने को धन्य मानता है, ऐसा किसान कुछ समय बाद अपनी करनी पर स्वयं पछतायगा। उत्तम पात्र में दिया हुआ दान उत्तम भूमि में यथासमय प्राप्त बीज की तरह महान् शान्तिदायक फलवान वृक्ष को प्रदान करता है। जो इस सत्यभूत रहस्य को नहीं जानता अथवा मोह या लोभवश जान कर भी भुला देता है और अहंकार के वश हो उत्तम पात्रों का सम्मान नहीं करता। वह आगामी जन्म में भाग्यहीन दरिद्र दुखी होता है इसमें तिलतुष मात्र भी शंका नहीं करनी चाहिए।१२६। प्रश्नः-किं पुरुषार्थचिह्न मे तत्फलं भो गुरो वद। हे गुरुवर धनादि की प्राप्ति यदि पुराकृत पुण्य से होती है, स्वयं के पुरुषार्थ से नहीं होती, तो पुरुषार्थ फिर क्या है और उसका क्या फल है? कृपया कहिए (अनुष्टुप्) अस्ति कार्योत्तमो लोके पुरुषार्थश्चतुर्विधः । इन्द्रियातीन्द्रियादीनां सत्सुखानां प्रदायकः ।।१२७।। कार्यो ज्ञात्वेत्यतो भव्यैर्धर्मार्थादिचतुर्विधः।। पुरुषार्थो यतः श्रीदोऽभीष्टसिद्धिर्भवेत्तव ।।१२८।।युग्मम् ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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