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________________ नैष्ठिकाचार १५७ अपने इस सत्यपूर्ण विश्वास के कारण वह संसार के मायामय, दुःखमय, अनात्मरूप, अशुभरूप, नाशवान् स्वरूप से विरक्तरहता है तथा अपने सुखमय, शुभरूप, नित्य, अनन्त गुणों के पिण्ड आत्मरूप में अनुरक्त रहता है। अपने इस रूप को प्राप्त करने के लिए वह लालायित है, कृत-संकल्प है। अतः उसकी प्रवृत्तियाँ सदा संसार की स्त्रियों से, शारीरिक मोह से और विषय-भोगों से कटी-कटी-सी रहती हैं। जैसे बहुत समय के दो मित्रों में परस्पर अविश्वास उत्पन्न हो जाय तो वे एक दूसरे के साथ रहते हुए भी, काम करते, आते-जाते, उठते-बैठते, वार्तालाप करते हुए भी आपस में कटे-कटे से रहते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कहीं साथी धोखे से किसी विपत्ति में न फँसा दे। वे साथी का साथ छोड़ नहीं पा रहे तो भी उस समय की प्रतीक्षा में हैं जब वे उसे छोड़ सकें। इसी प्रकार दार्शनिक श्रावक संसार के सत्यार्थ स्वरूप से पूर्ण अवगत होने के कारण तथा शरीर और विषय-भोगों की निःसारता को समझ लेने के कारण उनसे विरक्त रहता है और संसार में रहते हुए, उसके सब काम करते हुए भी-अर्थात् व्यापार, व्यवहार, पत्नी, व बाल-बच्चों का परिपालन, इन्द्रियों का भोग, उद्योग-धंधे, कुटुम्बी और सम्बन्धियों से स्नेह-व्यवहार आदि व्यवहार धर्म पालन करते हुए भी वह इनसे यथार्थतया विरक्त है और उस समय की घात में है जब वह अपने को उनसे छुड़ा सके तथा आत्महितकारक मोहरहित, वैररहित, कपटरहित, कषयरहित, भोगरहित, सर्वहितकारक और सुखदायक सन्मार्ग को पूर्णरीति से अपना सके। वह सदा पञ्चपरमेष्ठी (अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा दिगम्बर साधु) भगवान् पर दृढ़ आस्था रखता है, उन्हें ही इस संसार अटवी से उद्धार के लिए शरणभूत मानता है। अथवा संसार एक महान् अपार और अपरिमित गहरा समुद्र है। अनेक रोग-शोक संतापादि नक्रचक्र से यह भरा हुआ है। इसमें कोई जीव सछिद्र नाव में बैठकर चला और मध्यसमुद्र तक आकर नाव डूब गई। अब वह अकेला ही उसमें तैर रहा है। चारों तरफ जल ही जल है। कहीं तीर नजर नहीं आता। आठों दिशाएँ निराशापूर्ण हैं। जल भी अतल है अथात् नीचे भी गहराई अपार है, असंख्य खतरों से यह समुद्र भरा हुआ है। ऊर्ध्व दिशा में देखा तो केवल शून्य आकाश है। भुजाओं में वह सामर्थ्य नहीं कि समुद्र को तैरकर तीर की खोज कर सके। उसकी उत्ताल तरंगें क्षण-क्षण में उसे आत्मसात् करने को भुजाएँ फैलाए हैं। उनकी चपेट की ठोकर से उसका जीवन क्षण-क्षण में निराश होता है। ऐसे समय यदि आकाश मार्ग से कोई विमान आकर उसे हस्तावलंबन देकर उठा ले और विमान में बैठा ले तो वह क्षण भर में निराशा के गर्त से उन सकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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