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________________ श्रावकधर्मप्रदीप परस्त्री का त्याग होने पर भी जो परस्त्रियों की चर्चा करते हैं; उनके हावभाव, विलास, क्रीड़ा, गमन, हास्य और वेश-भूषा आदि विषयों पर वार्तालाप करते हैं, व्यभिचारिणी स्त्रियों से हँसते बोलते हैं, व्यङ्ग्य वचन कहते हैं, गाली आदि भण्डवचन बोलते हैं, स्त्रियों के चित्रों का संग्रह करते हैं, नग्न चित्रों का दुर्भावना से अवलोकन करते हैं वे अपने पवित्र व्रत को मलिन करते हैं, अतः उक्त सभी ही दोष त्याज्य हैं। १५६ स्वस्त्री में भी अति आसक्तता, काम से अतिआतुर होना, विभिन्न अङ्गों से क्रीड़ा करना आदि सम्पूर्ण कुचेष्टाएँ रागभाववर्द्धक होने से स्वदारसन्तोषी व्यक्ति के भी असन्तोष को उत्पन्न कर उसके व्रत को मलिन कर देती हैं, अतः इन कुचेष्टाओं को व्रत का अतिचार मानकर दूर से ही त्याग देना चाहिए ।। ११७ ।। उपसंहार इस प्रकार द्वितीय और तृतीय अध्याय में दार्शनिक श्रावक (प्रथम प्रतिमा) का स्वरूप निरूपण किया है। प्रथम प्रतिमाधारी नैष्ठिक श्रावकों में जघन्य नैष्ठिक है। यद्यपि छह प्रतिमाएँ जघन्य नैष्ठिक की हैं तथापि यह जघन्य नैष्ठिक का प्रारंभिक प्रथम स्थान है। श्रावक की मुख्य श्रेणी यहाँ से प्रारम्भ होती है। दार्शनिक श्रावक विशुद्धं सम्यग्दृष्टि होता है। सम्यक्त्व सम्बन्धी अतिचारों तथा अन्य दोषों से वह दूर रहता है। वह चारित्र भवन के प्रथम सोपान पर स्थित है। उसकी प्रवृत्ति सम्यक् मार्ग की ओर है। मिथ्यामार्ग और अन्ध-विश्वासों के लिए वहाँ स्थान नहीं है। वह केवल जिनोपदिष्ट तत्त्व का दृढ़तम श्रद्धानी है। उसे यह भलीभाँति ज्ञात है कि जो यथार्थ है, सत्य है वही जिनेन्द्र ने कहा है । जिनेन्द्र अन्यथावादी नहीं हैं; क्योंकि वे निस्पृह, निःस्वार्थ (सांसारिक स्वार्थरहित), पूर्ण सम्यग्ज्ञानी, वीतराग और सर्वहितैषी हैं। वह पद-पद में उनके वचनों की सत्यता पाता है। जगत् की अस्थिरता, अशरणता, संसरण - शीलता, जीव की स्थिति, उसका उपयोगात्मक स्वभाव, उसका गुणीस्वरूप, उसका अमूर्त्तत्व, उसका पुद्गल से वैशिष्ट्य अर्थात् पृथक्त्व, अपना एकाकीपन, शरीर की कृतघ्नता, उसकी अशुचिता का नग्न सत्य, कर्म के आस्रव, बंध तथा उदय की स्थिति, जीव के उपशम भाव, धर्म की दुर्लभता आदि सत्य तत्त्वों का उसे अपने जीवन के प्रत्येक कार्य में अनुभव मिलता है। प्रति समय वह इनका विचार करता है और उसे इनका आभास मिलता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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