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________________ नैष्ठिकाचार १५५ होते हैं वह सब इस व्रत के लिए दोषाधायक हैं। यद्यपि रावण का दुष्कृत्य निन्द्य है तथापि किसी आश्रय से अपने परिणामों में क्रूरता लाना भी बंध का ही हेतु है। मन के द्वारा मारण, छेदन, अंग भंग का विचार जैसे दोषास्पद है; क्योंकि ऐसा संकल्प परिणामों में निर्दयपना उत्पन्न करता है। इसी प्रकार वचन के द्वारा दुष्ट बातों का कहना तेरा मस्तक छेदूँगा इत्यादि हिंसा पूरक निर्दयता के वचन और काय के द्वारा हिंसा का अभिनय जैसे किसी के मस्तक के छेदन का अभिनय, शिकारी का वेश रखना तथा शिकार का स्वांग करना, इत्यादि काय से क्रूरकर्म करना सब आखेटत्यागवत के लिए अतिचार हैं। इन सबसे परिणाम मलिन होते हैं तथा इस व्यसन के लिए प्रोत्साहन मिलता है।।११६।। प्रश्न:-परस्त्रीसेवनस्यास्ति किं चिद्रं मे गुरो वद। हे गुरुदेव! परस्त्रीव्यसनत्यागवत के अतिचार कौन-कौन हैं, कृपया कहिए (अनुष्टुप्) कन्यकादूषणं वापि कन्यकाहरणं हठात् । नान्यस्त्रीचिन्तनं कार्यं कदापि भवभीरुभिः।।११७।। कन्यकेत्यादिः- अन्यत्र निश्चितसम्बन्धायाः स्वविवाहार्थमुद्बोधनं तस्यां मिथ्यादूषणारोपणं हठात् कन्यायाः गांधर्वविवाहार्थं हरणं परस्त्रीणां नखशिखशृंगाराणाञ्चिन्तनं इत्येतत्सर्वं परस्त्रीत्यागवतिनो दूषणमेव। परस्त्रीव्यसनपरित्यागेऽपि तद्विषयः कथाप्रसङ्ग व्यभिचारिणीभिः वार्तालापः हास्यादिकं भण्डवचनानां प्रयोगकरणं तव्रतातिचारा एव। स्त्रीणां चित्रसंग्रहो नग्नचित्राणां दुर्भावनयाऽवलोकनं स्वस्त्रियामपि अत्यासक्तिः कामातुरता अनङ्गसेवनं इत्यादीनि तद्विषयरागवर्द्धकानि सर्वाण्यपि कार्याणि अतिचारेष्वेव गर्भितानि सन्ति। तस्मात् भवभीरुभिः तत्परिहारः कर्तव्यः येन व्रतं निर्मलं स्यात् ।। ११७|| इति श्रीकुन्थुसागराचार्यविरचिते श्रावकधर्मप्रदीपे पण्डितजगन्मोहनलालसिद्धान्तशास्त्रिकृतायां प्रभाख्यायां व्याख्यायां च तृतीयोऽध्यायः समाप्तः। जिस कन्या का किसी दूसरे पुरुष के साथ सम्बन्ध निश्चित हो चुका है उसे अपने विवाह के लिए समझाना, उस पुरुष को उससे विरक्त करने के लिये कन्या को मिथ्या दूषण लगाना, कन्या को अपने साथ विवाहित करने के लिए हठात् हरण कर ले जाना, परस्त्रियों के नख-शिख श्रृंगार आदि का विचार करना, उनकी सुन्दरता का विचार करना ये सब परस्त्रीव्यसनत्यागी के लिए अतिचार हैं। व्रत को ये दूषित करनेवाले हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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