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________________ १५४ श्रावकधर्मप्रदीप हे गुरुदेव! चोरी व्यसन त्यागवत के अतिचारों का प्रतिपादन कीजिए __ (अनुष्टुप्) धनधान्यादिकमग्राह्यं परस्यान्यायतश्छलात् । यतो व्रतं भवेत् पूर्णं लोकद्वयसुखावहम् ।।११५।। धनेत्यादिः- अन्यायमार्गतः विश्वासघातात् छलव्यवहारात् परेषां धनधान्यादिवस्तूनां यद् ग्रहणं तत्सर्वं चौर्यव्यसनत्यागवते दोषस्पदमेव। इत्येवमेतानतिचारान् परित्यज्य विश्वासं समुत्पाद्य नैतिकाचाराविरोधेन सहजसद्व्यवहारेण धनोपार्जनं कर्तव्यं नान्यथा एवं करणे तु उभयलोके सुखावाप्तिः स्यात् व्रतं च पूर्णं भवेत् ।।११५।।। चोरी का त्याग करनेवाला व्यक्ति कदाचित् चोरी न करते हुए भी परके धन, धान्य, पशुआदि के पदार्थों को अथवा राजकीय, व्यापारिक, सामाजिक, धार्मिक तथा कौटुम्बिक अधिकारों को अन्य मार्ग से, विश्वासघात करके और कपट करके छीन लेवे तो यह सब चौर्यत्यागवत के ही दोष हैं।।११५।। प्रश्नः-आखेटकातिचाराणां किं चिह्न विद्यते गुरो। हे गुरुदेव! आखेटक व्यसन के कौन से अतिचार हैं, कहिए ___ (अनुष्टुप्) मह्यां लिखितचित्राणां भित्तिकाष्ठपटादिषु। छेदनं भेदनञ्चूर्णं न कार्यं धर्मवेदिभिः।।११६।। मह्यामित्यादिः- पृथिव्यामुल्लिखिते तथा भित्त्यादौ काष्ठनिर्मिते पटादिके वस्त्रादौ कर्गले वा चित्रिते चित्रादौ मनुजोऽयं इति संकल्पःजायते। उक्तप्रकारेण संङ्कल्पितेजीवे छेदनादिकमंगभंगादिककरणं कर्तनं वा आखेटककर्तुनिर्दयपरिणामहेतुत्वात् त्याज्यं धर्मज्ञैः। यथा मनसा जीवच्छेदनं मारणं वा दोषः तथैव वचसाऽपि तव मस्तकं छेत्स्यामि जिह्वाछेदनं करिष्यामि इत्यादिकं मर्मभेदिवचनमपि आखेटकव्रतेऽतिचारः स्यात्। कायेन हिंसायाः अभिनयः करवालेन मस्तकच्छेदनाभिनयो वा आखेटकत्यागव्रतस्यातिचार एव ततो धर्मवेदिभिः तन्न कार्यम् ।।११६।। पृथिवी पर, भित्ति पर, काष्ठपट पर, कागज या वस्त्रादिक पर उल्लिखित चित्र अथवा मिट्टी, काठ, धातु व काच आदि के बने हुए मनुष्य, हाथी, घोड़ा, आदि प्राणियों की मूर्तियों में जीव का संकल्प करके उनको मारना, मस्तक छेदना, अंग-भंग करना आदि दुष्कर्म आखेटत्यागवत के अतिचार हैं। जैसे लोक में रामलीला आदि के अवसर पर रावणादि की मूर्तियाँ बनाकर उनका मस्तक छेदते हैं और जो भी विद्वेष पूर्ण भाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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