SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० श्रावकधर्मप्रदीप तत्प्रयुक्तानामपि भाजनानामुपयोगाः स्यात् । मद्यस्पृष्टे भाजने भोजनमपि तद्दोषाधायकं स्यात् एवं तत्संर्गात् मद्यात् विरक्तिश्च नश्यति तस्मिन्ननुरागधोत्पद्यते, सत्येवं व्रतं च नश्चति। तस्मादतिचारान् परित्यज्य व्रतं रक्षणीयम् ।।१११।। गुड़ आदि में मदोत्पादक अन्य पदार्थों को गलाकर मद्य बनाया जाता है। उसे पीनेवाले मद्यप कहलाते हैं। मद्य में अनेक त्रस जीव उत्पन्न होते हैं, जो मद्यपान से नष्ट हो जाते हैं। उन्माद को उत्पन्न करने के लिये ही लोग मद्य का सेवन करते हैं। इसीप्रकार जो पदार्थ मदोत्पादक हों और जो पदार्थ सड़ जाने से अपने स्वाद से विचलित हो गये हैं उनका सेवन मद्य के दोष को ही उत्पन्न करता है। मद्य पीनेवालों की संगति करना, उनसे सम्बन्ध बढ़ाना, उनके साथ बैठकर भोजन करना, उनके द्वारा बनाया अन्न व जल ग्रहण करना, उनके द्वारा उपयुक्त बर्तनों में भोजन आदि करना और उनके बाल-बच्चों से अपने बालबच्चों की शादी आदि करना ये सब मद्य के अतिचार हैं। इन कार्यों से मद्य के प्रति होनेवाली विरक्तता मिट जाती है और मद्य के प्रति अनुराग क्रमशः बढ़ता जाता है। कुछ ही समय बाद ऐसे लोग स्वयं मद्यपायी हो जाते हैं। उनका भक्ष्याभक्ष्य का विवेक उन अविवेकियों की संगति में नष्ट हो जाता है। अभ्यक्ष्य के प्रति घृणा का भाव उठ जाता है। यह विचार कर मद्य के उक्त अतिचारों से दूर रहकर अपने व्रत की रक्षा करनी चाहिए।१११। प्रश्न:-मध्वतिचारचिह्न किं वर्तते मे गुरो वद। हे गुरुदेव! मधुत्यागवत में भी कोई अतिचार होते हैं? यदि होते हैं तो कृपाकर समझाइए (अनुष्टुप्) त्रसजीवसमाकीर्णं कुसुमं चान्यद्वस्तुकम् । मधुस्पृष्टं सदाऽहृद्यं त्याज्यं तत्त्वार्थवेदिभिः।।११२।। त्रसेत्यादि:- त्रसजीवानां हिंसादोषाधायकत्वाद्यथा मधु त्याज्यं तथा त्रसजीवसमाकीर्णं अन्यदपि वस्तु त्याज्यम् । तद्भक्षणे तव्रतातिचारः स्यात् । कुसुमेषु क्षुद्रजन्तुकाः तन्मत्तगन्धग्रहणेच्छया रसेच्छया च समागच्छन्ति। ते तु तत्रैवानुरक्तास्सन्तः निवसन्ति न परित्यजन्ति तदावासं प्राणान्तेऽपि। सरोजे भ्रमराणां तद्गन्धलोभेन मरणं जगति प्रसिद्धमेव। तज्जातीयानामन्येषामपि जन्तूनां तादृश्येव स्थितिरस्ति। तस्मात् कारणात् प्रायेण पुष्पाणामशनं न कर्तव्यम् | कृते च तदशने मध्वतिचारः स्यात्। मधुस्पृष्टे भाजनेऽपि भोजनं न कार्यम् । तथा मधुस्पृष्टं अन्यदपि वस्तु न ग्राह्यं। नेत्राञ्जनादौ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy