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________________ नैष्ठिकाचार १४९ (अनुष्टुप) चर्मपात्रे धृतं तैलं हिंगु नीरं तथा घृतम् । त्यक्तमांसाशनैस्त्याज्यमेवमन्यद्यथागमम्।।११०।। चर्मेत्यादि:- चर्मणि धृतं तैलं हिंगु नीरं घृतं वा यत्किञ्चिदपि भोज्यं पेयं वा तन्मांसदोषापादकमस्ति। नखरोमादिसंयुक्तमपि भोजनं मासांतिचारोत्पादकमास्ते। यस्मिन् वस्तुनि इदं मांसमिति सङ्कल्पो जायते तद्भक्षणेऽपि मांसातिचारो भवति। अतः त्यक्तमांसाशनैः मांसव्रतधारिभिरेते अतिचाराः यथागमं परिहर्तव्याः ११०। चमड़े के बर्तन में रखी हुई वस्तु का भक्षण मांसातिचारोत्पादक है। जैसे घी, तेल, हींग और जल आदि पदार्थ अनेक प्रान्तों में चमड़े की मशक में रखे जाते हैं। चमड़े की चालनी में चाला हुआ, चमड़े की तराजू में तौला हुआ तथा चमड़े के सूपे में रखा हुआ आटा आदि अभक्ष्य हैं। और जो अनाज धोकर शुद्ध किया जा सकता है उसे धोकर शुद्ध कर ही काम में लाना चाहिए। भोजन में यदि नख रोमादि का संपर्क आ जाय तो वह नहीं खाना चाहिए। रोम शरीरांश है अतः रोम, नख आदि सहित (स्पृष्ट) पदार्थ न खाना चाहिए। इसी प्रकार जिस पदार्थ में यह मांस है ऐसा संकल्प हो जाय उसे खा लेना भी मांसातिचार है। इनका वर्जन व्रती को अवश्य करना चाहिए। मांसभक्षी के हाथ का तथा उसके वर्तनों में बना आहार भी सर्वथा त्याज्य है।११०। प्रश्न:-मद्यातिचारचिह्नं किं वर्तते मे गुरो वद। हे गुरुदेव! मद्यत्याग व्रत के दोष कौन-कौन हैं, कृपाकर बताइए (अनुष्टुप्) मद्यपायिकरस्पृष्टं भोजनमपि दोषकृत् । न सेव्यं निन्दितं वस्तु स्वादतश्चलितं तथा ॥१११।। मद्यपायीत्यादिः- गुडादिषु मदोत्पादकेष्वन्येषां द्रव्याणां सम्मिश्रणात् कालान्तरे मद्यमुत्पद्यते। तत् खलु ये पिबन्ति ते मद्यपाः। मद्येऽनेके त्रासाः समुत्पद्यन्ते, तत्पाने च म्रियन्ते। स्वचित्तस्योन्मादेच्छया खलु सेवन्ते मद्यम् । तद्वत् स्वस्वादतः विचलितं भोज्यमपि सन्धानात् मद्यमिव त्रसजीवसमाकीर्ण भवति, तस्मात्तद्भक्षणे मद्यस्यैवातिचारः स्यात् । मदोत्पादकानामन्येषामपि पदार्थानामासेवनं मद्यस्यैवातिचाराय भवति। मद्यपानां करस्पर्शानिष्पन्नमन्नादिकञ्जलादिकञ्च नो ग्राह्यं व्रतिभिः। यतः खलु चित्तभ्रमवतां कश्चित्प्रत्ययः। तद् भक्ष्यं वा स्यात् अभक्ष्यं वा स्यात्, न तस्य तयोविवेकोऽस्ति। यः खलु तत्करस्पृष्टमन्नादिकं पानादिकं वा सेवते तस्य नस्याद्भोजनस्य शुद्धिः। तत्प्रसङ्गेन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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