SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ श्रावकधर्मप्रदीप वे कितने और कौन-कौन हैं (अनुष्टुप्) यावद्येषां फलानां तु गुणधर्मो न ज्ञायते ।। न तावद् भक्षणं तेषां कार्यं तत्त्वार्थवेदिभिः ।।१०७।। फलानामपि चान्येषां कृत्वा चूर्णञ्च छेदनम् ।। ज्ञात्वा जीवांस्ततस्त्यक्त्वा कार्यं पश्चाद्धि भक्षणम् ।।१०८।। त्रसजीवसमाकीर्णं फलं सेव्यं न तत्त्वतः । अतीचारविमुक्तं हि श्लाध्यं तस्य व्रतं भवेत् ।।१०९।। विशेषकम्।। यानि फलानि खलु व्रतिनोऽपरिचितानि सन्ति। यावद् येषां भक्ष्यत्वाभक्ष्यत्वविषये निर्णयो न जातस्तावत्तेषां भक्षणं दोषास्पदमेव । स्वस्यापि प्राणातिपातस्तस्मात् संभवति। तस्मादपरिचितं फलं न भक्षणीयम् । अन्येषामपि फलादीनाञ्चूर्णं वटिकाद्यपि औषधं जीवरहितावस्थायामेव भक्ष्यं स्यात् अतः शोधितं भक्षणीयम् । त्रसादिजीवसमाकीर्णानि अन्यान्यपि फलानि न भक्षणीयानि। बदरीफलादीनां शोधनेऽपि जीवानां संभावना भवति अतः न भक्षणीयम् । एवं विचारपूर्वकं व्रतमेव श्लाघ्यं भवति अतिचारैश्च विमुक्तं भवति। १०७।१०८।१०९।। जिस फल को व्रती पुरुष भक्ष्य है या अभक्ष्य ऐसा निर्णीत नहीं कर सकते वह कभी भक्ष्य नहीं हो सकता। ज्ञानी पुरुष को वह कभी नहीं खाना चाहिए। उस प्रमाद से अभक्ष्य भक्षण में आ सकता है। बिना जाने हुए फल को खाने से खुद का भी मरण या रोगादिक का होना सम्भव है। एवं और भी फल आदि वस्तुएँ जो सुखा ली जाती हैं और जिनके टुकड़े-टुकड़े करके रख लिए जाते हैं या चूर्ण या गोली बनाकर औषधि के काम में लाए जाते हैं उन सबको अशोधित खाना दोषास्पद है। शोध कर ही निर्जीवावस्था में उनका सेवन करना चाहिए। त्रसजीव संयुक्तबेर, मकुइया, जामुन और अचार आदि अभक्ष्य ही हैं। बेर आदि शोधनीय हो भी जाँय तो भी उनमें त्रस जीवों की संभावना है। अतः अभक्ष्य ही हैं। इस प्रकार विचारपूर्वक भोजन करनेवाले पुरुष का व्रत ही निरतिचार और प्रशंसा योग्य होता है। १०७।१०८।१०९। प्रश्नः-मांसातिचारचि किं विद्यते मे गुरो वद। हे गुरुदेव! मांस के सर्वथा परित्याग रूप व्रत को पालनेवाले व्रती को भी जिन कारणों से मांसभक्षण सम्बन्धी अतिचार प्राप्त होते हैं उनको बताइए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy