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________________ नैष्ठिकाचार दन्तरोगादावपि मधोः प्रयोगः न कर्त्तव्यः । औषधिरूपेणापि लेपादौ तस्य प्रयोगः दोषाधायकोऽतिचार एव स्यात् । ११२ । मधु त्रस जीवों का कलेवर है और त्रसोत्पादक है अतएव अग्राह्य है। इसी प्रकार उक्त दोषों से पूर्ण जो भी पदार्थ हैं उनका सेवन करना मधुव्रत के लिए ही दोषाधायक है। फूलों में उसकी गंध और रस के लोभी छोटे-छोटे जन्तु सदा बसते हैं और प्राणान्त हो जाने पर भी उनको नहीं छोड़ना चाहते। कमल में गंध के लोभ में भ्रमर के मरण को प्राप्त हो जाने की कथा जगत में प्रसिद्ध है। इसी प्रकार भ्रमर की ही जाति के अन्य क्षुद्र कीटाणुओं की भी यही स्थिति है। उक्त कारणों से प्रायः फूलों का सेवन नहीं करना चाहिए। जो पुष्प शोधे जा सकते हैं- स्पष्टतया त्रस रहित किए जा सकते हैं, आवश्यकता होने पर उनका उपयोग कर भी सकते हैं, तो भी ऐसी पुष्प जो शोधे नहीं जा सकते, या शोधे जाने पर भी जिनपर क्षुद्र जन्तु उड़कर बैठ जाते हैं, या जो सदा जीवसमाकीर्ण ही रहते हैं ऐसे नीम के फूल केतकी पुष्प आदि सर्वथा परिहार के योग्य हैं। मधुस्पृष्ट भोज्य को ग्रहण करना, मधुस्पृष्ट भाजन में भोजन करना भी अतिचार है। नेत्र में, दांतों में और गुदा में उत्पन्न हुए अनेक रोगों में जो मधु का प्रयोग किया जाता है वह भी दोषाधायक है। अर्थात् औषधि के रूप में लेपादि के लिए भी मधु का प्रयोग मधुव्रतवाले के लिए अतिचार ही है। अतः अतिचारों का परहेज कर व्रत को निर्मल बनाना ही श्रेयस्कर है । ११२। प्रश्न: - द्यूतातिचारचिह्नं किं वर्तते मे गुरो वद । गुरो ! द्यूत व्रत के दोषाधायक अतिचारों का वर्णन कीजिए अथ सप्तव्यसनातिचार (अनुष्टुप्) क्रीडतश्च मिथो द्यूतं दृष्ट्वा जीवान् कदापि न । तुष्येत् पलायनं लोभात् कारयित्वा पशोस्तथा । । ११३ ।। १५१ Jain Education International क्रीडतश्चेत्यादिः - द्यूतक्रीडां कुर्वतां समर्थनं तेषां प्रशंसा द्यूतक्रीडादर्शने समुत्सुकता तद्दर्शनात् संतोषः ऐते सर्वेऽपि द्यूतातिचाराः । जयपराजयेच्छ्या पशूनां पलायनक्रीडा द्यूतमेव । होढादिना मनः प्रसत्त्यर्थं यत्किञ्चिदपि क्रियते तत्सर्वमपि द्यूतक्रीडात्यागव्रतस्यातिचारेषु गर्भितमेव । यथा द्यूतक्रीडा विशिष्टरूपेण रागद्वेषादीनुत्पादयति तद्वत् तत्सर्वमपि । तस्मात्तत्परिवर्तनेन व्रतं रक्षणीयम् । ११ ३ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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