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नैष्ठिकाचार
१४५ नहीं। मूल के अभाव में जैसे वृक्ष में शाखाएँ, फल-पत्र-निरर्थक हैं, ऐसे ही मूलव्रत के अभाव में उत्तरव्रतों की कल्पना भी निरर्थक है। चारित्ररूपी मन्दिर की यह पहली सीढ़ी है। इस पर चढ़े बिना कोई चारित्रमन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकता।
दया धर्म के आराधक श्रावक इन मद्यादि पदार्थों का सेवन तो बहुत दूर की बात है स्पर्शन करना भी पाप समझते हैं। मांस का भक्षण महान् क्रूर कर्म है। मद्य चित्तभ्रम को उत्पन्न कर अनेक पापों को प्रोत्साहित करता है। मधु मधुमक्खियों का सञ्जित खाद्य है, जिसके खाने में उन मधुमक्खियों के साथ ही उस खाद्य रूप मधु में उत्पन्न होनेवाले मक्षिका जातीय असंख्य निकोत जीवों की हिंसा अनिवार्य है। इस प्रकार महान् हिंसा पाप के उत्पादक इन मकारत्रय का स्पर्शन भी दयाधर्माराधक श्रावक के लिए निन्द्य है। इसके सेवन का फल उत्तर काल में अत्यन्त दुःखप्रद है।
बड़ आदि फल भी बहुत से जीवित जीवों के स्थान हैं। वे प्रत्यक्ष भी दीखने में आते हैं और असंख्य जीव ऐसे हैं जो दीखने में नहीं आते। इनको खाने में इनकी हिंसा सुनिश्चित है। यह भी अत्यन्त क्रूर कर्म है। ऐसा विचार कर धर्म के इच्छुक इनका कदापि सेवन नहीं करते। इन आठों का त्याग ही आठ मूल गुण या आठ मूल व्रत कहलाता है। ये आठों सर्वथा अभक्ष्य हैं।१०३।१०४।
प्रश्नः-अभक्ष्यवस्तुत्यागस्य हेतुः को विद्यते वद।
आठ पदार्थों को ऊपर अभक्ष्य कहा गया है। सो हे गुरुदेव! अभक्ष्य क्या है? उनके त्याग का क्या हेतु है? उनका त्याग क्यों करना चाहिए। इनके सिवाय भी अभक्ष्य और होते हैं क्या? हैं तो कौन-कौन हैं? कृपाकर कहें
(अनुष्टुप्) तुच्छफलाद्यभक्ष्याणां दयाधर्मप्रणाशिनाम् । भक्षणं स्पर्शनञ्चापि न कार्यं भवभीरुभिः ।।१०५।। तच्चलितरसं वस्तु न भक्ष्यं व्याधिवर्धकम् । पूर्वोक्तविधिसाध्यात्स्याद्धि लोके शान्तिदा मतिः।।१०६।।युग्मम्।।
तुच्छेत्यादि:- यन्न भक्षणीयं स्यात्तदेवाभक्ष्यम्। यद्भक्षणे त्रसजीवानां घातः स्यात् तदभक्ष्यमित्येकम्। यद्भक्षणे बहूनां स्थावरजीवानां घातः स्यात्तद्वितीयमभक्ष्यम्। यत्किल मोहजनयति चित्तं भ्रामयति तच्छेवनमपि न करणीयम्। तत्करणं तु तृतीयमभक्ष्यम्। यद् भक्ष्यमपि उच्चकुलीनैर्धर्माधिरूढैर्महापुरुषैर्न भक्ष्यते तद्भक्षणमपि चतुर्थमभक्ष्यम्। यच्च भक्ष्यमपि स्वशरीर प्रकृतिविरुद्धं
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