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________________ १४४ श्रावकधर्मप्रदीप (अनुष्टुप्) मद्यमांसमधूनां हि सेवनं स्पर्शनं तथा । न कार्यं दुःखदं निन्द्यं श्रावकैर्धर्मवत्सलैः ।।१०३।। सदा प्राणिसमाकीर्णंवटादिफलपञ्चकम् । न भक्ष्यमिष्टसिद्धयै च तन्मूलव्रतमिष्यते ।।१०४।।युग्मम्।। मद्येत्यादिः- श्रद्धावतः श्रावकस्य कल्याणार्थञ्चारित्रमुक्तम् । चारित्रञ्च तत् सर्वदेशपापपरित्यागरूपं एकदेशपापपरित्यागरूपञ्चेति द्विविधम्। प्रथमं तावत् दिगम्बराणाम्। तत्स्वरूपं तु प्रागेव मुनिधर्मप्रदीपे ग्रंथे श्रीमदाचार्येण प्रोक्तम्। यथार्थतया सर्वपापपरित्यागरूपमनगारव्रतमेव चारित्रम्। तदेवोत्सर्गमार्गः। यो लोके राजमार्गःप्रोच्यते। तद्धारणेऽशक्तानां तु एकदेशपापपरित्यागरूपं श्रावकव्रतमस्ति। नासौ उत्सर्गः किन्तु अपवादमार्ग एव। अनगारव्रतहेतुत्वात्तस्यापि व्रतत्वमायाति। सागारस्य मूलव्रतानि-यन्मद्यमांसमधूनां वट-पिप्पलोदुम्बर-पाकरफलानाञ्च परित्यागः। एतेषां परित्यागेन विना न कोऽपि श्रावकसंज्ञां प्राप्नोति। चारित्रमन्दिरस्य प्रथमसोपानञ्चैतन्मूलव्रतमस्ति। दयाधर्माराधकाः खलु श्रावकाः मद्यादीनामासेवनन्तु तावत् दूरतरमेवास्ताम् तत्स्पर्शनमपि निन्दनीयमस्ति इति मन्यन्ते। परिपाककाले हिंसायाः खलु फलम्महदुःखमेवास्ति इति ते जानन्ति। वटादिफलपञ्चके बहुजीवास्सन्ति सदा चोत्पद्यन्ते। तद्भक्षणे तेषां हिंसावश्यं संजायते एतद्विचार्य धर्मवत्सलैः कदापि न सेवनीयं मद्याद्यष्टमम् अभक्ष्याणि चैतानि सदा दयापरैः।१०३।१०४। श्रद्धावान् श्रावक का कल्याण केवल श्रद्धामात्र से न होगा, अपने कल्याण के लिए उसे जिनोक्त उस सन्मार्ग पर जिसकी उसने श्रद्धा की है चलना भी होगा, उसे ही चारित्र कहते हैं। ___यह चारित्र पञ्चपाप परित्याग रूप है। सम्पूर्णतया पञ्चपाप परित्याग रूप व्रत महाव्रत है। यह दिगम्बरत्व को स्वीकार करनेवाले परम निस्पृही वीतराग निःसङ्ग साधु पुरुषों द्वारा ही साध्य है। यह विधेय मार्ग है जिसे राजमार्ग भी कहते हैं। जो हीन पुरुषार्थी पुरुष इस परम कल्याणकारक मार्ग को पालन करने में असमर्थ हैं उनके लिए एकदेश पाप परित्याग रूप यह श्रावकों का अणुव्रत है। यह अपवाद मार्ग है। मुनिमार्ग का निरूपण मुनिमार्गप्रदीप नामक ग्रंथ में आचार्य श्री कुन्थुसागर महाराज ने किया है। श्रावकधर्म का वर्णन इस ग्रन्थ में किया जा रहा है। श्रावक के चारित्र में मूलव्रत ८ हैं।-मद्यत्याग, मांसत्याग,मधुत्याग तथा बड़, पीपर, पाकर, ऊमर और कठूमर इन पाँच क्षीर फलों का त्याग ये आठ मूलव्रत हैं। इन आठ मूलगुणों को धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि को श्रावक संज्ञा प्राप्त होती है, अन्यथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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