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श्रावकधर्मप्रदीप
रोगोत्पादकं रोगाद्यवस्थायामपथ्यकारकमस्ति तद्भक्षणमपि दोषास्पदमेव व्रतिनामस्ति इति पञ्चविधमस्ति । ग्रन्थान्तरे प्रसिद्धानि द्वाविंशतिसंख्यकानि तु अभक्ष्याणि पूर्वोक्तकारणैरेव त्याज्यानि सन्ति । यदि द्वाविंशतिसंख्यातो बहिर्भूतानि अपि वस्तूनि अभक्ष्यलक्षणैर्लक्षितानि स्युस्तदा तान्यपि अभक्ष्याणि इति निश्चेतव्यम्। तुच्छफलेषु सप्रतिष्ठितत्वं वर्तते तस्मादनन्तस्थावरप्राणिविघातो भवति तद्भक्षणे। बदरीफलादिषु च तुच्छफलेषु त्रसजीवानामपि स्थानानि सन्ति न तु अतितुच्छफलानां शोधनम्भवितुमर्हति तस्मात् कारणात् दयाधर्मविनाशकानां तेषां भक्षणं स्पर्शनञ्च भवदुःखभीरुभिः श्रावकैर्न कर्त्तव्यमिति । स्वप्राकृतिकस्वादतः चलितस्वादानामपि वस्तूनां भक्षणं न कर्त्तव्यम् । तदपि नानात्रसजीवानां योनिः । अतः भक्ष्यमपि वस्तु यदा स्वादतः विचलितं स्यान्न तदा भक्षणीयं तत् । इति पूर्वोक्तविधिना अभक्ष्यभक्षणत्यागात् दयाधर्मसंरक्षणात् शान्तिप्रदायिनी बुद्धिरुत्पद्यते । १०५/१०६।
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जो पदार्थ खाने के अयोग्य है वह अभक्ष्य है। खाने के अयोग्य पदार्थ पाँच कारणों से होते हैं
(१) जिनके खाने में त्रस जीवों का घात हो। जैसे-पञ्चोदुम्बरफल, रात्रि में निष्पन्न भोजन, मक्खन, (मर्यादा बाहिर) मधु, बरफ, द्विदल, बैगन, अचार इत्यादि ।
(२) जिनके खाने में बहुत से स्थावर जीवों का घात होता हो। जैसे- कन्दमूल, बहुबीजा, कोंपल, बालअवस्था वाले फल इत्यादि सप्रतिष्ठित वनस्पतियाँ।
(३) जिनके खाने से चित्त में भ्रम पैदा हो, नशा चढ़े, उन्मत्तता बढ़ जाय, पागलपन आ जाय। जैसे- मदिरा, गांजा, भांग, तम्बाखू, अफीम आदि ।
(४) जो उच्च कुलीन धर्मात्मा व्रती पुरुषों द्वारा सेवन नहीं किए जाते हैं वे पदार्थ चौथे प्रकार के अभक्ष्य हैं। लोकविरुद्ध पदार्थ का भक्षण लोकनिन्द्य होता है। जैसे - लहसुन, प्याज आदि । यद्यपि ये जमीकन्द होने के कारण भी अभक्ष्य हैं तथापि लोकविरुद्ध भी है। जो जमीकन्द का त्याग नहीं किए वे भी उनका भक्षण कुलीन होने के नाते नहीं करते हैं। देश भेद से इसमें भेद पड़ जाता है। जिस प्रान्त में जो पदार्थ शुद्ध होने पर भी लोकनिन्द्य हो वह व्रती को सेवन नहीं करना चाहिए। अजानफल भी इसी श्रेणी में है।
(५) जो पदार्थ शुद्ध होने पर भी रोगोत्पादक हो या रोगावस्था में अपथ्यकारी हो या सहज ही प्रकृति के विरुद्ध पड़ता हो वह पदार्थ भी अभक्ष्य है। इसके भक्षण करने से मनुष्य रोगी होने पर धर्म कर्म से विहीन हो जाता है। संक्लेश परिणाम होते हैं, य है। दूसरी बात यह है कि शरीर में रोग होने पर अनेक रोगों के कीटाणु उत्पन्न हो जाते
अतः
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