SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ श्रावकधर्मप्रदीप पाँच पाप कौन हैं और उनका स्वरूप क्या है, कृपया कहिए (९१ इन्द्रवज्रा, ९२ उपजातिः) लोभाभिमानात्परपीडनं स्याद्धिसैव दुष्टाऽखिलविश्वहन्त्री। दुःखस्य मूलं किल सर्वजन्तोहिँसा न कस्यापि कदापिकार्या।।९१।। पूर्वोक्तहिंसा किल सर्वतः स्यात् त्याज्या मुनीनां गृहिणां च देशात्। भव्यैरहिंसा हि यथोक्तरीत्या निजात्मशान्त्यै सुखदा सुपाल्या।।९२।। लोभाभिमानादित्यादिः- 'परप्राणपीडनं हिंसा' हिंसायाः स्वरूपं वितम्। सा च सांसारिकस्वार्थसिद्ध्यर्थं लोभावेशात् क्रियते जनैः पंचेन्द्रियाणां विषयसंप्राप्तये प्रयतमानस्य कस्यचित् कार्ये यदि कश्चिद्बाधकः स्यात् तदा स लोभात् बाधकस्य प्राणिनो वधं करोति पीडयति वा। मानी वा कश्चित् स्वस्याहंकारसंरक्षणार्थं च परान् पीडयति। तद्विषयक्रोधाद्यावेशादपि प्राणिनां महती हिंसा भवति इति दृश्यते पदे-पदे। सा हिंसा दुःखस्य मूलमस्ति सर्वप्राणिनाम्। यदि जगति हिंसायाः औचित्यं स्वीकृतं स्यात् तदा सा अखिलमपि विश्वं स्वरूपेण व्याप्नोति। अतएव अखिलविश्वहन्त्री सा हिंसा कस्यापि प्राणिनः न कदापिकार्या। अहिंसायाः परिपालनं द्विविधं भवति-सर्वतो हिंसापरित्यागरूपं मुनीनांव्रतम्, एकदेशहिंसापरित्यागरूपंतु गृहिणाम् । आत्महितैषिभिर्भव्यैः यथोक्तरीत्या स्वस्वपदानुसारेण पालनीयं तव्रतम्, यतो निजात्मनि सुखदायिनी शान्तिः सदा स्यात्। ९१।९२। राग और द्वेष दोनों हिंसा के पर्यायवाची नाम हैं। लोभ के कारण सांसारिक स्वार्थ के लिए अर्थात् पंचेन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वाले किसी व्यक्ति के मार्ग में यदि कोई बाधक सिद्ध होता हो तो वह उसे विषय लोभ के कारण मार देता है; पीड़ित करता है या अनेक प्रकार से त्रास देता है। तथा अनेक मानी पुरुष अपने अहंकार के वश होकर हिंसा करते हुए देखे जाते हैं और क्रोधादि कषायों के कारण तो पद-पद में हिंसा होती है यह स्पष्ट ही है। हिंसा दुःख का मूल है। यदि हिंसा उचित मान ली जाय तो वन में लगी हुई अग्नि की कणिका की तरह वह सम्पूर्ण जगत् का विनाश करने में समर्थ है। वह सम्पूर्ण विश्व के लिए प्रलयकाल का दृश्य दिखा सकती है अतः उसका औचित्य बिलकुल नहीं किया जा सकता। अहिंसा का पालन दो प्रकार से होता है-सम्पूर्ण हिंसा का त्याग और अल्प हिंसा का त्याग। हिंसा का जो सम्पूर्ण त्याग कर सकते हैं वे साधु या मुनि हैं और जो केवल त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग कर सकते हैं वे गृहस्थ हैं। अपनी अपनी शक्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy