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________________ नैष्ठिकाचार १२७ उपसंहार (उपजाति) प्रोक्तं व्यथादं भवदं सदैवाविश्वासपात्रं व्यसनस्वरूपम् । त्याज्यानि बुद्ध्वा व्यसनानि सप्त यतो भवेत्ते हृदये प्रशान्तिः।।१०।। प्रोक्तमित्यादि:- इत्येवंप्रकारेण अनेकदुःखोत्पादकं सप्तव्यसनस्वरूपं नातिविस्तरेणात्र निरूपितम्। एतानि व्यसनानि अविश्वासस्य परमस्थानानि सन्ति। न कोऽपि प्रत्येति व्यसनिनः तस्मात्तत् स्वरूपं विचार्य व्यसनानां परित्याग एव कर्तव्यः । व्यसनपरित्यागादेव ते हृदये शान्तिर्भविष्यतीति आचार्याणामुपदेशोऽस्ति।९०। उक्त प्रकार से सप्त व्यसनों के स्वरूप का संक्षेप में कथन किया। व्यसन कोई भी हो मनुष्य को कल्याणमार्ग से दूर फेंक देता है। लौकिक व्यवहार की दृष्टि से भी व्यसनी मनुष्य समाज का सदस्य बनने योग्य नहीं होता। वह स्वयं पतनशील होता है और उसकी दुःसंगति भी दूसरों को पतनशील बनाती है। ऐसा विचार करके ही समाज व्यसनी मनुष्यों को जाति से बहिर्मुख कर उसके साथ अपना खान-पान व लौकिक-धार्मिक व्यवहार आदि छोड़ देती है। यह परम्परा आज भी चालू है। आजकल सुधार की दृष्टि से जाति बहिष्कार तथा धार्मिक स्थानों का बहिष्कार अनुचित माना जाता है। कहा जाता है कि इससे व्यक्ति की बहुत बड़ी हानि होती है। वह उठ नहीं सकता, उसका उत्थान नहीं हो सकता। यद्यपि उक्त तर्क संगत है, तदनुसार व्यक्ति के उत्थान के लिये नियमों में परिवर्तन करना आवश्यक है। तथापि यह ध्यान सदा रखना चाहिए कि व्यक्ति को ध्यान में रखकर समाज के चरित्र की चिन्ता न करना भी बहुत बड़ी हानि है। समाज व बहुमत व्यक्ति को अपनाने के लिए प्रस्तुत है पर व्यक्ति के लाभ के लिए, वह भी केवल समाज में समान हक प्राप्त हो जाय इतने मात्र के लिए, समाज की पवित्रता का बलिदान करना लाभप्रद नहीं है। इस प्रकार स्वयं के लिये व समाज के लिए, अनेक व्यथाओं के पैदा करनेवाले व्यसनों का सब प्रकार से त्याग करना ही श्रेष्ठतम कल्याण का मार्ग है।९०। इति व्यसनसप्तकनिरूपणम् । पाँच पापों का स्वरूप वर्णन प्रश्नः-पञ्चपापस्वरूपं मे विद्यते कीदृशं वद। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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