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________________ १२६ श्रावकधर्मप्रदीप जो मनुष्य परस्त्री में रमण करता है या जो स्त्री पर पुरुष की इच्छा करती है उनका पतन अवश्यंभावी है। लोक में ये अपकीर्ति के भाजन बनते हैं। पद-पद पर उनका अपमान होता है। अनाचार की वृद्धि होती है। कुल और आचार की पवित्रता नष्ट होती है। यह पापी स्वयं तो गिरता ही है साथ ही परस्त्रियों को तथा अपनी संतान परम्परा को भी पापपंक में गिरा जाता है। व्यभिचारी माता-पिता की सन्तान हजारों वर्ष तक उनके नाम का स्मरण कर रोती है तथा उनके उस दुष्कृतपर थूकती है। वह इस जन्म में सर्वथा निरपराध और सदाचारिणी होते हुए भी पूर्व जन्म के पापोदय से ऐसे हीन पुरुषों की सन्तान हो कर पद-पद पर दुःखी और अपमानित होती है। उस अनर्थपरम्परा के उत्पादक होने से वह व्यक्ति अवश्य नरक का पात्र होता है। जैसे हिंसा आदि अन्य पापों का सम्बन्ध उस व्यक्ति को ही हानि पहुँचानेवाला होता है वैसे व्यभिचार केवल उस व्यक्ति को ही हानि पहुँचाने वाला नहीं है, बल्कि उसकी सन्तान परम्परा को भी उससे हानि उठानी पड़ती है। कुल का पावित्र्य संतान की पवित्रता से है और संतान की पवित्रता माता-पिता के सदाचार पर है। असदाचारी माता-पिता अपने भावी कुल की अवनति और अपवित्रता के हेतु होते हैं। ___व्यभिचार से परस्पर वैर भी बढ़ता है और विरोध भी होता है। सामाजिक पवित्रता और आत्मशान्ति नष्ट होती है। वेश्याव्यसनी की अपेक्षा यह परस्त्रीव्यसनी घोर पापी है। इसका कारण है कि यद्यपि वेश्याव्यसनी का पतन परस्त्री- व्यसनी की अपेक्षा अत्यधिक होता है तथापि उसका पतन उसके आत्मा तक ही सीमित है। वह समाज को गंदा नहीं करता। व्यक्तिगत हानि कर स्वयं को जरूर मिटा लेता है, किन्तु परस्त्री गमन करनेवाला समाज का कोढ़ है, जो उसे भी मिटा करके रहता है। सारांश यह है कि वेश्याव्यसनी अपना व्यक्तिगत पूर्ण विनाश करता है और परस्त्री व्यसन वाला अपना विनाश तो करता ही है साथ ही अपने कुल पर कलंक लगाता है। अपनी संतान को व्यभिचार जात संतान बनाता है। समाज में अनाचार फैलाने का हेतु बनता है। अतः वह अत्यधिक पातक का भाजन होता है। उक्त व्यसन का परिपूर्ण स्वरूप विचार कर विवेकी पुरुषों को इससे सदा ही दूर रहना चाहिए।८९। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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