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नैष्ठिकाचार
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बड़ा से बड़ा भी वैभवशाली यदि इस व्यसन का शिकार हुआ तो वह सदा परधन पर गृद्ध की तरह दृष्टि रखता है। छटांक भर भी सौदा बेचेगा तो ४।। तोला देगा, सेर भर देगा तो १५।। छटांक तौलकर देगा। छटांक भर लेगा तो ५।। तोला तौल देगा,
और सेर भर लेगा तो १६|| छटांक तौल लेगा। उस आधे तोला सामान को, चाहे वह कौड़ी कीमत का हो, पर उसे बिना लिए नहीं रह सकता। यह इस व्यसन की महिमा है। लाखों रुपयों का व्यसाय करने वाले धनी मानी इज्जतदार व्यक्ति भी एक पैसे की भाजी खरीदने में तौल से ज्यादा चार पत्ते भाजी चोरी से उठाकर अपने पल्ले में रखते हुए देखे जाते हैं। वे भले ही दस बीस हजार रुपया दान दे देते हैं, खर्च करते हैं, किन्तु चोरी का व्यसन (बुरी लत) होने से वे भाजी के चार पत्तों की चोरी छोड़ने में अपने को असमर्थ पाते हैं।
आत्मस्वरूप के बोध से विमुख व स्व-पर का भेद न जानने वाले मिथ्यादृष्टियों की ऐसी ही दशा है। वे बिना चोरी के जीवन निर्वाह नहीं करते। किन्तु स्व-परविवेकी सम्यग्दृष्टि पुरुष सदा देन-लेन व व्यापार-व्यवहार में यह चिन्ता रखता है कि मेरे पास अन्याय से कोई पर वस्तु न आ जाय, किसी की एक कौड़ी भी मेरे पास न रह जाय। वह विवेकी कभी स्तेय को भी स्वप्न में भी पास नहीं आने देता। वह स्वात्मानन्द के भोग में तृप्त होकर ही जीवन यापन करता है। यही कारण है कि वह शीघ्र ही भवभ्रमण का विच्छेद कर शाश्वत मुक्ति सुख का पात्र हो जाता है।८७।८८।
प्रश्न:-परस्त्रीसेवनस्यास्ति किं फलं मे गुरो वद। हे गुरुदेव! परस्त्री सेवन का क्या फल है कृपाकर मुझसे कहें
(इन्द्रवज्रा) रक्तोऽस्ति यः कोऽपि किलान्यनार्यां तस्यापमानोऽपि पदे-पदे स्यात्। दुःखप्रदा वैरविरोधवृद्धिः ज्ञात्वेति कार्यो न च तत्प्रसङ्गः।। ८९।।
रक्तोऽस्तीत्यादिः- यः खलु नरकीटकः परस्त्रीषु रमते तस्य पदे पदेऽपकीर्तिः स्यात्। स लोके अपमानपदमाप्नोति उपानद्भिश्च निहन्यते। स खलु पापी स्वयं चारित्रहीनो भवति परांथापि पापपङ्के निपातयति। परस्त्रीसंगमात् वैरञ्च भवति। तस्यानादिपरम्परया प्रवाहरूपेण समायातं कुलपावित्र्यं नश्यति। अनाचारपरम्पराया प्रवर्तको भूत्वा स नरके निपतति। आचारविरहितास्तु ये जनास्तेषां भाविनी कुलसन्ततिश्च धर्ममार्गपराङ्मुखी भूत्वा संसाराटव्यामेव भ्रमति चिरकालमिति ज्ञात्वा कदापि तत्प्रसंगः न कार्यः। स्वस्त्रीषु संतुष्य कुलाचारपावित्र्यं रक्षणीयम् ।।८९।।
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