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________________ श्रावकधर्मप्रदीप इनसे विलग होना ही पुण्य का उदय है। सर्व साधारण मनुष्य धनादि से अपने को सुखी अनुभव करता है। इस दृष्टि को लक्ष्य में रखकर ही श्री आचार्य महाराज ने इसे पुण्य से प्राप्त होने वाली सामग्री लिखा है। जंगल में जब डाकू शस्त्र लेकर धन लूटने आते हैं उस समय यदि कोई धनी सामने आ जाता है तो वह शस्त्राघात से पीड़ित किया जाता है पर साथ में जो निर्धन है वह छोड़ दिया जाता है। ऐसे अवसर पर धन विपत्ति लानेवाला होने से पापोदय की निशानी हुई और निर्धनता पुण्य की सामग्री हुई। नगर में आग लग जाय तो धनी का धन महान् दुःखोत्पादक होने से पाप की सामग्री है और निर्धनता सुखोत्पादक होने से पुण्य की सामग्री है। मोक्षमार्ग साधन के लिए बाधक अनेक विकल्प जालों में फँसाने वाली अनिष्ट कारक विभव सामग्री पापरूप है और शीघ्र ही गार्हस्थिक जाल से विमुक्त करा देनेवाली इष्ट कारक निर्धनता पुण्य है। १२४ सारांश यह है कि कोई भी सामग्री एकान्त रूप से पुण्य या पाप रूप नहीं है। जो संसारी प्राणी को इष्टकारक सुखसाधन हो जाय वह सब पुण्य का फल है और जो भी सामग्री अनिष्टकारक दुःख साधन रूप हो वह पाप का फल है। पुण्य से प्राप्त सामग्री को भी सम्यग्दृष्टि अपनी वस्तु नहीं मानता। वह जानता है कि यह सब स्वात्म स्वरूप व्यतिरिक्त पर पदार्थ हैं। मेरा तो केवल आत्मा है। दर्शन, ज्ञान, और चारित्रात्मक रत्नत्रयस्वरूप धर्म ही मेरा वैभव है। ऐसे विवेकी मनुष्य के द्वारा परधनापहरण रूप निन्द्य स्तेयकर्म कैसे हो सकता है। जिन मिथ्यामतियों को स्वपर का विवेक नहीं जागृत हुआ और जिन्होंने अभी तक आत्मतत्त्व को ही नहीं जाना वे अपने मनुष्य के जन्म को ही अपना जन्म मानते हैं, शरीर को ही अपना स्वरूप समझते हैं और कुटुम्ब परिजन को अपना स्नेहभाजन जानते हैं। उन्हें हितैषी समझकर उनसे मोह करते हैं। उनके संयोग में सुखी और वियोग दुःखी होते हैं। धन, सम्पत्ति, मकान और राजविभव आदि जो जो सामग्री उन्हें उनके कर्मोदय से प्राप्त है उस सब में राग द्वेषमय प्रवृत्ति करते हैं। यह अज्ञान भाव जिसके हृदय में जमा है वे अविवेकी ही धनादि को सम्पूर्ण सुख का साधन मान उसमें मूर्च्छित होते हैं। वे उन पर पदार्थों में ऐसे तन्मय हैं जो उनके लाभ में अपना परम लाभ और उनकी हानि में अपनी परम हानि समझकर महान् दुःखी होते हैं। ऐसे ही मोही जीव उसकी प्राप्ति के लिए परधनापहरणरूप स्तेय पाप को अंगीकार कर लेते हैं। एक बार इस पाप को करनेवाला उसे बार-बार करता है। चोरी उसकी आदत में आ जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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