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नैष्ठिकाचार
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इष्ट है। जिसमें आत्मविस्मृति ही गुण है वहाँ चातुर्य और श्रेष्ठ बुद्धि की कल्पना या आशा करना मूर्खता है। सर्व साधारण पशु, पक्षी व कीट पतंगादि में भी खाने, पीने, सोने व विषय भोग करने का जो ज्ञान होता है उतना भी ज्ञान मद्यपायी को नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में मानवयोग्य बुद्धि की उसमें आशा कैसे की जा सकती है।
विवेक के अभाव में लज्जा चली जाती है। अविवेकी लज्जित क्यों होगा? कोई बुरा काम करनेवाले व्यक्ति को उसका विवेक जागृत होने पर ही लज्जा का अनुभव होता है, पर जिसे विवेक खोने के लिये ही मद्य पीना है उसे अपने दोष पर कभी लज्जा आयगी यह सोचा ही नहीं जा सकता। निर्लज्ज मनुष्य वेश्या सेवन, परधनापहरण, अभक्ष्य भक्षण, अपवित्र वस्तु सेवन, यहाँ तक कि स्वमाता से भी विषय सेवन जैसे निन्द्य कर्मों को करने में आगा पीछा नहीं देखता। व्यभिचारिणी स्त्रियों की संगति कर उनमें ही सन्तान उत्पन्न करता है और इस तरह अपनी जाति और कुल को कलंकित कर उसे अपवित्र बनाता है। आचार नामक वस्तु उसके लिए कुछ है ही नहीं। वह स्वैराचारी हो जाता है।
स्वैराचारी मनुष्य की धर्मभावना नष्ट हो जाती है। क्रूर और हिंसक भावनाएँ जागृत हो जाती हैं। उनकी मानसिक इच्छाएँ सदा दूषित रहती हैं। इच्छा न रहने पर भी वह अकृत्य को करता है, असेव्य को सेवन करता है। अगम्य में गमन करता है। वह अपनी सदिच्छाओं को पूरा करने के लिए स्वयं असमर्थ है। वह अपने आप में पराधीनता का अनुभव करता है। दुखी होता है और उस पराधीनता से छूटने की बार-बार इच्छा करता हुआ भी उससे अपने को छुड़ा नहीं पाता। जैसे पानी में बहनेवाले व्यक्ति को रीछ पकड़ ले तो उसे उससे पिण्ड छुड़ाना असम्भव सा जान पड़ता है। ऐसे ही नशे में बहनेवाले इस मद्यप को भी कहीं बचने का ठिकाना नहीं मालूम होता। वह दिन दिन घुलता है। परेशान होता है। इस दुःख से छूटना चाहता है पर अपनी असावधानी देख फिर आत्मविस्मृति के लिए मद्य ही पी लेता है और इस दुर्दशा से अन्त में मरण को प्राप्त हो दुर्गति का पात्र बनता है। ऐसा जानकर इस व्यसन का परिहार कर और स्वात्मानन्द रस का पान कर सुखी बनना चाहिए।८२।८३।
प्रश्नः-खेटक्रीडाफलं लोके किमस्तीति गुरो वद। हे गुरो! खेटक्रीड़ा अर्थात् शिकार व्यसन का क्या फल है कृपाकर कहिए:
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