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________________ ११८ श्रावकधर्मप्रदीप (अनुष्टुप्) चातुर्यं प्रवरा बुद्धिर्लज्जापि मद्यपायिनाम् । कुलजातिपवित्रत्वं नश्यति धर्मभावना ।।८२ ।। स्वैराचाराः स्पृहा दुष्टा वर्धन्ते भवदुःखदाः । त्यक्त्वेति मद्यपानादि पिबन्तु स्वात्मनो रसम् ।। ८३ ।। युग्मम् ।। चातुर्यमित्यादि - तात्पर्यमेतत्-मोहञ्चित्तभ्रमञ्जनयति तन्मद्यम्। मद्यपायिनां चित्तवृत्तिरेव दूषिता भवति । स्मृतिश्च लुप्यते । विस्मरणजनकत्वमेव मद्यस्य सौष्ठवं इति कथयन्ति मद्यपाः । यत्र स्वानुभूतकार्यस्यैव विस्मरणत्वं गुणस्तत्र प्राणिनि कुतः स्याच्चातुर्यम् । प्रवरा श्रेष्ठतमा आत्महितैषिणी हेयोपादेयविचारिणी निर्मला बुद्धिस्तत्र कथं तिष्ठेत् ? सद्बुद्धेरुत्पत्तिस्तु दूरर्मास्ताम् सर्वसाधारणप्राणिषु पशुपक्षिषु कीटपतंगेष्वपि? भोजनपान - शयन - भोगादीनां व्यावहारिकदृष्ट्या यो विवेकः स्यात् न सोऽपि मद्यपे दृश्यते। विवेकस्याभावे तस्य निर्लज्जत्वमपि संजायते। विवेकशालिन एव लज्जा स्यात् । अविवेके कुतो लज्जा। निर्लज्जस्तु स वेश्यादिगमनं करोति । अभक्ष्यं भक्षयति । अमेध्यमपि सेवते। स्वमातर्यपि विषयसेवने प्रयतते । स्वायोग्यास्वपि वनितासु सन्तानोत्पत्तिं करोति । एवं स्वोत्कृष्टां जातिं कुलं च मलिनीकृत्य स्वैराचारी भवति । तस्य धर्मपालने भावना न कदाचित् स्यात् । दुःखप्रदायिन्यः हिंसापरिपूर्णाः कुत्सिता इच्छास्तु प्रवर्धन्ते । एवं मद्यस्य दोषान् परिज्ञाय तत् परित्यज्यं ये चैतन्यरसपरिपूर्णानन्दस्वरूपस्य स्वात्मनो रसमेव पिबन्ति ते मद्यव्यसनविरक्ताः सन्तः स्वात्मसुखं अनुभवन्ति।८२।८३ । मद्यपान यह तीसरा व्यसन है। यह ऐसा कुव्यसन है जो आत्मा की बुद्धि पर सीधा कुठाराघात करता है। जैसे मस्तक विकृत हो जाने से बड़े बुद्धिमान् चतुर तत्त्वज्ञ पण्डित की बुद्धि कुण्ठित हो जाती है इसी प्रकार मद्यपान से मनुष्य का चित्त विकृत हो जाता है और उसे कर्त्तव्याकर्त्तव्य का बोध शेष नहीं रहता। मद्यपायी लोग उत्तम मद्य उसे ही मानते हैं जो सुध-बुध भुला दे । जो मद्यप थोड़ा भी होश में रहता है मद्यप लोग उसके मद्य को हलके दर्जे का मानते हैं। जिस मद्य की उत्कृष्टता ही अज्ञान, विस्मरण या विवेकाभाव का प्रतीक है उसके सेवन करनेवाले मनुष्य में बुद्धि चातुर्य-विवेकशालिनी बुद्धि के सद्भाव की आशा करना स्वयं विकृत मस्तक का कार्य है। जैसे बालू से तेल नहीं निकाला जा सकता वैसे ही मद्यपायी विवेकी नहीं हो सकता । मद्यपायी को जब नशा उतरने पर होश आता है और उस समय उसे व्यावहारिक दृष्टि से कुछ बोध होने लगता है तब ही वह उस किञ्चिन्मात्र बुद्धि का नाश करने के लिए पुनः मद्यपान कर लेता है। होश में रहना उसे इष्ट ही नहीं, उसे तो अनिष्ट ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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