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________________ नैष्ठिकाचार ११७ त्रसकायिक इन सब प्राणियों के शरीर में तज्जातीय असंख्य प्राणियों की तथा अनन्तानन्त निकोत जीवों की सदा उत्पत्ति होती है और सप्रतिष्ठित वनस्पति में वनस्पति जातीय अनन्त निगोद प्राणियों की उत्पत्ति होती है। अतः मांस के समान सप्रतिष्ठित वनस्पति भी दयावान् पुरुष के लिए हेय है, केवल अप्रतिष्ठित वनस्पतियाँ ऐसी हैं जिनके भक्षण में कवेल उस एक ही एकेन्द्रिय का घात होता है। कोई वनस्पति शरीर जीव द्वारा परित्यक्त हो जाने पर निर्जीव हो जाता है। उस मृत शरीर में निगोद जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। इस स्थिति को देखकर कोई मनुष्य कुतर्क द्वारा यह सिद्ध करना चाहे कि अन्नादिवत् मृतप्राणी के शरीर का मांस भी है तब अन्नादि की तरह उसके भक्षण में कोई दोष नहीं होना चाहिए। अथवा मांस की तरह अन्नादि भी न खाना चाहिए तो ये दोनों उक्तियाँ युक्तिशून्य हैं, सत्य के विरूद्ध हैं क्योंकि एकेन्द्रिय प्राणी के मृत शरीर में निगोदिया जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। विश्व में शान्ति प्रदाता हेय को हेय और उपादेय को उपादेय बतानेवाला एकमात्र सम्यग्ज्ञान ही है। उक्त प्रकार का विवेक मांसभक्षी को उत्पन्न नहीं होता। अतः वह विश्व के लिए सदा खतरा बना रहता है। तब विश्वशान्ति कैसे हो। विश्वशान्ति के इच्छुक सम्पूर्ण मानव यदि शान्ति के मूल इस जीवदया रूप महामंत्र को जपकर मांसभक्षण परित्याग कर दें तो विश्वशान्ति होना अनिवार्य है। विश्व का संघर्ष विश्व के प्राणियों की कल्याण की भावना के बिना कैसे टाला जा सकता है और जो प्राणियों के मांस खाने से भी परहेज नहीं करता वह विश्व के उन प्राणियों की कल्याण कामना कैसे कर सकता है। दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं। धर्मज्ञ और धर्म के नायक पुरुषजो आत्महित और विश्व का हित चाहते हैं उनका कर्तव्य है कि अपने भीतर हेयोपादेय का विचार उत्पन्न करें और निन्दनीय दुःखदायी इस मांस सेवन के व्यसन का त्याग कर अपना और पराया हित करने के कार्यों में सतत सावधान रहें।८०८१। मद्यपान व्यसन के दोष प्रश्नः-मद्यपानाद् भवेत् किं मे वदात्मशान्तये प्रभो। हे प्रभो! मद्यपान से क्या हानि होगी? यह कृपा कर समझाइए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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