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________________ ११६ श्रावकधर्मप्रदीप जीवानामुत्पत्तिर्भवति। तस्मात् सिद्धं यन्नान्नादिभिस्समत्वं स्यान्मासादीनां कदाचित्। तन्मांसं परिहर्तव्यमेव स्वहितमिच्छता।८०।८१। मांस भक्षण करना यह दूसरा व्यसन है जो प्राणी को धर्म मार्ग से भ्रष्टकर अधर्म के मार्ग में ले जाता है। जो लोग मांस भक्षण करते हैं वे दयावान नहीं होते। दया और हिंसा दोनों में परस्पर विरोध है। जैसे प्रकाश और अंधकार एक साथ एक स्थान पर नहीं रह सकते, इसी प्रकार एक प्राणी में दया और हिंसा दोनों एक साथ निवास नहीं कर सकते। मांस भक्षण निश्चित हिंसा महापाप का रूप है अथवा उसकी चरम सीमा है। प्राणिवध के बिना मांस की उत्पत्ति नहीं होती। मांस वृक्षों में नहीं फलता, भूमि में उत्पन्न नहीं होता, आकाश से बरसता भी नहीं है, उसकी प्राप्ति प्राणी हिंसा से ही होती है। ऐसी स्थिति में दयावान् पुरुष भला किसी प्राणी की हिंसा मांसभक्षण के लिए कैसे करेगा? क्या कर्तव्य है। क्या नहीं । क्या कार्य हेय है, क्या उपादेय है, इस प्रकार विवेक जिसके हृदय में जागृत है वह दयावान् किसी भी प्राणी के एक रोम मात्र को भी दुःखी नहीं होने देता। पर शरीर का घात करना तो उसके लिए बहुत बड़ा पातक है। ___ मांस की उत्पत्ति में केवल उस प्राणी का ही वध नहीं है जिसका वह शरीर है बल्कि उसके मांस में उसी की जाति के अनन्त (निगोत') संख्यक प्राणियों की सतत उत्पत्ति होती है और मांस भक्षण में उनका विनाश सुनिश्चित है। इस तरह माँस सेवी न केवल एक पंचेन्द्रिय का घातक है किन्तु उन असंख्य पंचेन्द्रियों का वह घातक हो जाता है जिन अनन्तानन्त निकोत जीवों के वहाँ अधिष्ठान हैं और जो उस मांस में सतत उत्पन्न होते रहते हैं 'इन जीवों की उत्पत्ति स्वयं मरे हुए प्राणी के मांस में भी होती है और मारे गए प्राणी के मांस में भी होती है तथा मांस की पकी हुई, पकती हुई, तथा कच्ची आदि सम्पूर्ण अवस्थाओं में भी होती है। अतएव मांसभक्षण में उनकी महान् हिंसा अवश्य होती है। १. हमारे पूज्य पिताजी निगोद और निगोत या निकोत जीवों में बड़ा भेद है ऐसा कहते थे। इन्हें एकार्थ नहीं मानते थे। वे इनकी इस प्रकार व्याख्या करते थे कि साधारण वनस्पति को निगोद कहते हैं और निगोत या निकोत संज्ञा उन असंख्य जीवों की है जो त्रस हैं और जो त्रस जीवों के रक्त मांसादि संज्ञा प्राप्त शरीर में सतत होते रहते हैं। ये मृत शरीर में भी होते हैं पर निगोद मृत एकेन्द्रिय शरीर में नहीं होते केवल सजीवावस्था में होते हैं। सम्भवतः उन्हें यह बात गुरुवर्य पं०गोपालदासीजी से ज्ञात हुई थी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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