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________________ १२० श्रावकधर्मप्रदीप (अनुष्टुप) खेटक्रीडादिलुब्धानां क्रूरता मूढताऽगतिः । वर्द्धते पशुता दुष्टा सन्मार्गनाशिनी स्पृहा ।।८४।। खेटक्रीडां भयाक्रान्तां ज्ञात्वेतिदुःखदां सदा । त्यक्त्वा स्वात्मपदे नित्यं रमन्तां स्वात्मशोधकाः ।।८५।।युग्मम्।। खेटक्रीडेत्यादि:- तात्पर्यमेतत्, आखेटकं नाम व्यसनितया कौतुकार्थं वने-वने गत्वा पशूनां पक्षिणां वा वधः। एष व्यसनी खलु मांससेवनादिप्रयोजनतः हरिणादीन् पशून् पक्षिणश्च खड्गादिना वाणादिना अग्न्यायुधेन च मारयति। स्वशौर्यप्रकाशचार्थं सिंहादिक्रूरजन्तूनामपि वधं करोति तथा लोके कीर्तिसंपादनार्थं च स एतान् विनाशयति। एतदतिरिक्तं केवलं कौतुकार्थं परदुःखदायिनीं दुरच्छिां पूरयितुमपि परप्राणानपहरति। अस्मात्कुकृत्यतस्तु तस्य मनसि सन्मार्गलोपिनी असन्मार्गप्रवर्द्धिनी इच्छा वर्द्धते। पशूनां सम्पर्कात् पशुवदुष्टकार्यकरणात् तद्वदविवेकित्वेन च दुष्टा पशुता तस्य आयाति। क्रूरता वर्द्धते। कषायाणामतिमात्रया मूढता प्रसरति। अगतिश्च भवति स तद्विना। एतत्फलमपि महदुःखदमस्ति। अस्मिन्नेव जन्मनि स वनजन्तूनामाहारो भवति। मृत्वा च नरके पतति। अथवा तिर्यग्गतौ द्वीन्द्रियादिषु कीटयोनिषु गत्वा सोऽन्यैर्भक्ष्यते। इत्यनेन प्रकारेण अनेकानेकदुःखदां भयाक्रान्तां एनां वधक्रीडां ज्ञात्वा त्यजेयुरेतद्व्यसनम्। तथा स्वात्मशोधनतत्परास्सन्तः नित्यं स्वात्मपद एव रमन्ताम् ।८४।८५। ___मांसादि सेवन करने का व्यसन जिन्हें पड़ गया है वे शिकार खेलने की आदत बना लेते हैं। कोई अपने शौर्य प्रकाशन की इच्छा से, कोई अपनी हिंसक समाज में कीर्ति सम्पादन की इच्छा से और कोई केवल अपना शौक पूरा करने के इरादे से अपनी कुत्सित इच्छाओं को पूरा करने के इरादे से दूसरे प्राणियों का वध करते हैं। इस कुकृत्य को करते हुए उनमें दया के स्थान में कौतूहल जागृत होता है। क्रूरता जागती है। एक तड़पते हुए प्राणी को देखकर सज्जन को जहाँ करुणा उत्पन्न होती है वहाँ व्यसनी को आनन्द आता है। यह आसुरी आनन्द ही क्रूरता है। यही सन्मार्ग से भ्रष्ट करानेवाली महा मूढ़ता है। हिंसक जन्तुओं की तरह यह पशुता उसकी दिन-दिन बढ़ती जाती है। प्रकारान्तर से वह कुछ समय में नरतनधारी होने पर भी अपने परिणामों की जाति द्वारा पशु से भी भयंकर हिंसक और अविवेकी बन जाता है। इस कुकृत्य का फल परलोक में नरकादि गति की प्राप्ति है। ऐसे कुमानुष का मरण इस लोक में भी बहुधा वन जन्तुओं द्वारा ही होता है। यदि वह तिर्यग्गति में भी उत्पन्न हुआ तो स्वयं निर्बल होता है और दूसरे सबल प्राणियों का भोग्य बनता है जिनको उसने पूर्वजन्म में सताया था। द्वीन्द्रियादि जन्म में कीटादि होकर भी वह पक्षियों का आहार बनता है। इस प्रकार महान् भय और दुःख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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