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________________ प्रकाशकीय (द्वितीय संस्करण) श्री १०८ आचार्य कुन्थुसागर महाराज ने श्रावकधर्मप्रदीप की संस्कृत श्लोकों में रचना करके श्रावकों का बड़ा उपकार किया है। इसमें गृहस्थ के सभी आवश्यक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। इसकी रचना पुराने श्रावकाचारों के और विशेषरूप से आचार्य जिनसेन के महापुराण और पं०आशाधर जी के सागारधर्मामृत के आधार से की गयी है। वास्तव में यह ग्रन्थ श्रावकधर्म को प्रकाशित करने के लिए प्रदीप के समान है। इसमें कुछ ऐसे विषयों का श्रावकाचार के रूप में समावेश किया गया है जो वर्तमान काल में प्रलचित हैं किन्तु जिनका समावेश प्राचीन श्रावकाचारों में नहीं है। जैन समाज के मूर्धन्य विद्वान् श्री पं. जगन्मोहनलाल जी सिद्धान्तशास्त्री ने श्रावकधर्मप्रदीप की संस्कृत तथा हिन्दी में सरल तथा सुबोध टीका लिखकर जैन साहित्य की अभिवृद्धि की है। संस्कृत न जानने वालों के लिए हिन्दी टीका बहुत उपयोगी है। हिन्दी में प्रकृत विषय को व्यापक रूप से समझाया गया है। पं. जी का हिन्दी और संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार है। यही कारण है कि श्रावकधर्मप्रदीप की संस्कृत और हिन्दी टीकाएँ प्राञ्जल भाषा में लिखी गई हैं। इन टीकाओं के निर्माण में पंडितजी ने जो श्रम किया है वह सराहनीय है। टीकाकार के आद्य वक्तव्य से श्रावकधर्मप्रदीप के रचयिता आचार्य कुन्थुसागर महाराज का जीवन परिचय भी प्राप्त हो जाता है। आपके द्वारा श्री अमृतचन्द्राचार्यकृत कलशों पर रचित स्वात्मप्रबोधिनी टीका व वचनिका आपके गम्भीर अध्यात्मज्ञान का स्पष्ट निदर्शन है। अपने जीवन के प्रारंभ काल से ही आपकी रुचि त्याग की ओर है और इस समय आप सप्तम प्रतिमा के व्रतों का पालन कर रहे हैं। सिद्धान्ताचार्य श्री पं०कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने श्रावकधर्मप्रदीप पर प्रास्ताविक लिखकर इसके महत्त्व को बढ़ाया है। आप सुयोग्य लेखक, सम्पादक तथा प्रवक्ता हैं। विज्ञ पाठकों को आपकी अनेक रचनाओं में आपके अगाध पाण्डित्य की झलक मिल ही जाती है। प्रास्ताविक पढ़ने से श्रावकधर्म सम्बन्धी अनेक बातों का सरलता से बोध हो जाता है तथा पाषण्डी, पर्व, चेल, परदारनिवृत्ति आदि शब्दों के प्राचीन तथा प्रचलित अर्थों की जानकारी मिल जाती है। इसके अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र और उमास्वामी आदि के द्वारा प्रतिपादित श्रावक के व्रतों, अतिचारों आदि का तुलनात्मक ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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