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________________ VII सायंकालीन सामायिक के लिए तत्पर पण्डित जी अपूर्व जागृत अवस्था में मन्त्रोच्चारण के वातावरण में समाधिस्थ हुए। पूज्यवर आचार्य विद्यासागर जी की ससंघ उपस्थिति में इस शती के महान दार्शनिक, जैन धर्म के प्रकाण्ड पण्डित, निरतिचार व्रतपालक पं0 जगन्मोहनलाल शास्त्री ने शरद्-पूर्णिमा की पूर्व संध्या में; आश्विन सुदी चतुर्दशी के महापर्व की पावन बेला में सल्लेखना पूर्वक समाधिस्थ हो महाप्रयाण किया। उस महान् आत्मा की ऊर्ध्वयात्रा को सिद्धक्षेत्र कुण्डलगिरि की पावन धरती पर समवेत अपार जन-समुदाय ने देखा और प्रेरणा प्राप्त की। प्रस्तुत कृति 'श्रावकधर्मप्रदीप' का तृतीय संस्करण लोक-हित की भावना से प्रेरित पण्डित जी के बड़े पुत्र श्री अमरचन्द्र जैन, सतना निवासी के प्रबुद्ध प्रयासों का परिणाम है। जीवन के आध्यात्मिक प्रकाश और पावनता देने वाला सत्साहित्य प्रकाशित कराने में वे अहर्निश प्रयत्नशील हैं। श्री १०८ आचार्य कुन्थुसागर महाराज की रचना 'श्रावकधर्मप्रदीप' की संस्कृत और हिन्दी टीका जैन विद्या की परम्परागत शास्त्रीय शैली के मूर्धन्य विद्वान् स्व० पं0 जगन्मोहनलाल जी की अमूल्य कृति है। उनके चिन्तन-मनन, अभीक्ष्ण ज्ञानाराधन और असाधारण प्रतिभा के अमृत-स्पर्श से यह बहुमूल्य कृति व्यापक रूप से समादृत हुई है। आलोक और अन्धकार के अनेक युग पार करते हए पण्डित जी ने अपनी जीवन-यात्रा को पूर्णता प्रदान की; किन्तु आजीवन अपने धार्मिक और सांस्कृतिक उत्तराधिकार के प्रति सदैव सजग और सावधान रहे। उनका व्यक्तिव सार्वभौम होकर भी आत्मनिष्ठ रहा। उनकी सामाजिक और धार्मिक दृष्टि बहुत परिष्कृत थी। जैन विद्वानों की परम्परित एवं आधुनिक पीढ़ियों बीच वे सेतु थे। उस महान् तत्त्वज्ञानी, प्रभावशाली वक्ता एवं जैन जीवनचर्या के साधक को शत-शत प्रणाम। कटनी (म०प्र०) १ सितम्बर १९९७ विजय भारतीय एडह्वोकेट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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