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________________ मुनि महाराजों का उन्हें सानिध्य प्राप्त होता रहा। १३ वर्ष की अवस्था में पूज्य वर्णी जी से परिग्रह-परिमाण-व्रत ग्रहण किया था। सन १९२७ में पूज्य आचार्य श्री शान्ति सागर जी महाराज से द्वितीय प्रतिमा के व्रत धारण किये। क्रमशः व्रतों का निरतिचार पालन करते हुए १९६१ में आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किये तत्पश्चात् सन् १९७४ में सप्तम प्रतिमा के व्रत लिए; उसी समय आचार्य श्री से पण्डित जी का सतत सम्पर्क बना रहा। धर्म एवं समाज में सेवा के कार्यों में उनकी धर्म-पत्नी एवं पुत्रों का बराबर सहयोग रहा। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में सभी लौकिक कार्यों से निवृत्त होकर कुण्डलपुर क्षेत्र स्थित उदासीन आश्रम में पण्डित जी ने अपना जीवन धर्म साधनापूर्वक व्यतीत किया। पुण्योदय से १९९५ में पूज्यवर आचार्य विद्यासागर जी महाराज के ससंघ चातुर्मास की स्थापना कुण्डलपुर (सिद्धक्षेत्र कुण्डलगिरि) में हुई। इस निमित्त को पाकर दिनांक २४ जन ९५ को पण्डित जी ने आचार्यश्री से सल्लेखना की प्रार्थना की। इस तरह पण्डित जी की समाधि-यात्रा प्रारम्भ हुई। कार्य और कषाय को कृश करने की प्रक्रिया में वे खरे उतरते गये। इसके पूर्व सन् १९९४ में पूज्य मुनि श्री समतासागर जी, मुनि श्री प्रमाणसागर जी एवं ऐलक श्री निश्चयसागर जी महाराज का कटनी में वर्षा-योग स्थापित हुआ तभी से पण्डित जी सल्लेखना के पूर्वाभ्यास में संलग्न होकर समाधि-यात्रा की तैय्यारी में थे। सुयोग मिलने पर आचार्य श्री के निर्देशन में पण्डित जी समाधि-शिखर के सोपानों पर दृढ़ता के साथ चढ़ते गये.... बढ़ते गये। आचार्यश्री का यह सूत्र "व्रती जीवन की शोभा समाधि-मरण से होती है" पण्डित जी ने आत्मसात् करते हुए कहा था "जीवन-शिखर पर समाधि रूपी कलशारोहण करने आया हूँ।" समाधि-साधना में रत पण्डित जी ने सुविधा, शिथिलता और सुस्ती से कोई समझौता नहीं किया। शारीरिक स्थिति शिथिलतम हो गई थी पर चित्त की स्वस्थता में पूर्णरूपेण स्थिर हो गये थे। "अप्पाणं सरणं गच्छामि (मैं अपनी आत्मा की शरण को स्वीकार करता हूँ) के सत्य-घोष ने शिथिलाचार के लिए कोई गुंजाइश नहीं रखी। समाधिकाल में आत्मोन्नति की अनुल्लंघनीय कितनी सीढ़ियाँ वे तय कर चुके थे? इसका लेखा-जोखा रखना सहज नहीं है। मरणोपरान्त की अद्भुत अलौकिक अनुभूति ने पण्डित जी के मन से मृत्यु-भय दूर कर दिया था। "जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनन्द" इस युक्ति को चरितार्थ करने वाले वे अग्रणी महापुरुष थे। आश्विन सुदी चतुर्दशी दिनांक ७.१०.९५ को पण्डित जी ने जल भी ग्रहण नहीं किया। इसके ४ दिन पूर्व से अन्न का त्याग कर दिया था। अन्तिम दिवस तक उन्होंने नित्य देव-पूजन, सामायिक एवं आचार्यश्री के दर्शन किये। अन्तिम क्षणों में पण्डित जी जीवन को निजी मौलिक अन्तर्दृष्टि से देख रहे थे। एक साथ गहराई, ऊँचाई, सूक्ष्मता और विस्तार के आयाम साकार हो रहे थे। समत्व के प्रकाश में सारे अन्धकार अस्तित्वहीन हो चले थे। शारीरिक शिथिलता थी किन्तु मानसिक सामर्थ्य का अद्भुत विकास उनमें हो रहा था। उनकी अंतश्चेतना यथार्थगामी संवेदनाओं से अनुप्राणित थी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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