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________________ श्रावकधर्मप्रदीप संसार में ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जिसमें गुण या दोष न हों। किसी में गुण अधिक हैं तो दोष भी कोई न कोई पाया जाता है और किसी में यदि दोष बाहुल्य है तो एक-दो गुण भी उसमें पाए जाते हैं। सम्यग्दृष्टि आत्मा में उक्त नियमानुसार दोष भी हैं तथा सम्यक्त्वादि अनेक गुण भी हैं। ऐसा होने पर भी सम्यग्दृष्टि अपने में विद्यमान अनेक श्रेष्ठ गुणों की ओर लक्ष्य नहीं करता, किन्तु यदि उसमें स्वल्प भी दोष है तो उसे दूर करने के लिए स्वनिन्दा करता हुआ उस दोष को दूर करने का प्रयत्न करता है। सम्यग्दृष्टि का यह स्वनिन्दाकरण भी एक गुण है जो सम्यक्त्व में उज्ज्वलता लाता है। विशेषार्थ- उन्नति का एक मात्र साधन यही है कि कोई भी व्यक्ति सदा स्वदोषों का निरीक्षण करे तथा उसे दूर करने का प्रयत्न करे। जब तक उक्त दोष दूर न हो, या दूर करने में अपनी दुर्बलता हो तो उसे आत्मग्लानि होना स्वाभाविक है। आत्मग्लानि होने से आत्मनिन्दा स्वतः होती है और इस निन्दा को न सह सकने के कारण वह उक्त दोष से अपने को मुक्त कर लेता है अर्थात् दोष रहित बन जाता है। जो मनुष्य अपने दोष का निरीक्षण नहीं करते किन्तु अपने में होनेवाले थोड़े से भी गुण को देखकर फूले नहीं समाते और उसके निमित्त से स्वात्म प्रशंसा करते हैं उनकी उन्नति रुक जाती है। स्वात्मप्रशंसा को ही अपनी कीर्ति का प्रसार समझकर हर्षोन्मत्त होने लगते हैं और वे थोड़े गुणों को अधिक बनाकर अथवा गुण न होने पर भी अपने को गुणवान् बनाकर मिथ्या भाषण कर कीर्ति को प्राप्त करना चाहते हैं। वे इस लोभ का संवरण नहीं कर सकते। 'लोभ से पाप उत्पन्न होता है' इस उक्ति के अनुसार कीर्तिलोलुपी मिथ्याभाषण, विश्वासघात, मायाचारी और कपट व्यवहार आदि पापों को स्वीकार कर अपने में रहनेवाले पूर्व के थोड़े से भी गुणों को नष्ट कर डालते हैं और इस प्रकार उनकी उन्नति का अध्याय समाप्त होकर अधःपात का अध्याय प्रारम्भ हो जाता है। स्वात्मप्रशंसा करनेवाले परनिन्दा भी अवश्य करते हैं। बिना ऐसा किए उनका स्वात्मकीर्तन का स्वांग नहीं जमता है। अतः दिन दिन वे दुर्गुणों के पात्र होकर नीच गोत्र का बंधकर संसार परिभ्रमण के पात्र बनते हैं। सम्यग्दृष्टि ठीक इसके विपरीत स्वदोषनिन्दा, परगुण प्रशंसा, स्वदोषवारण, परगुणग्रहण, स्वगुण कथन में उपेक्षा और परदोष कथन में भी उपेक्षा भाव इन गुणों के कारण सर्वदोष से दूर होकर अनेक गुणों के पात्र होते हैं। यह सब उनके “स्वात्मनिन्दा" नामक गुण का श्रेष्ठतम कार्य है। इसलिए आत्महितैषी को यह गुण सदा अपनाना चाहिए।७१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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