________________
नैष्ठिकाचार
और चैतन्यस्वरूप आत्मा के प्रति अनुरागी हो जाता है। उस दयासागर आनन्दमूर्ति बुद्धिमान की यह प्रवृत्ति ही निर्वेग नामा गुण है जो सम्यक्त्व का साधक है । ६९ ।
उपशम गुण का स्वरूप (अनुष्टुप्)
क्रोधादेर्दः खदस्यास्ति मन्दता यस्य सौम्यता । स्यादुपशमगुणस्तस्य मिथः श्रीदः सुखप्रदः । ।७०।।
क्रोधेत्यादिः- उपशमः शान्तिरित्यर्थः । यदा यस्य दुःखदस्य अनन्तदुःखोत्पादकस्य क्रोधादेः मन्दता भवति तथा सौम्यता सौम्यत्वमायाति परिणामे तदा तस्य सुखप्रदः श्रीदः कल्याणकारी च परिणाम एवोपशमगुणः स्यात् । ७० ।
९५
क्रोधादि परिणाम आत्मा को सदा दुःखदाता है। क्रोधी स्वहिंसक है और परहिंसक है। क्रोध से हिंसा तो होती ही है पर अन्य भी लोभ, भीरुत्व और अहंकार आदि दुर्गुण उत्पन्न होते हैं। ये सब दुर्गुण अनात्म स्वरूप होने से अनन्त दुःख के प्रदाता हैं। जब जीव अपने सत्यप्रयत्नों द्वारा इन क्रोधादि परिणामों की मन्दता करता है तब उसके आत्मा में जो सन्तोष व शान्ति होती हैं उसे ही उपशम गुण कहते हैं। इस गुण से मनुष्य की प्रकृति में सौम्यता आ जाती है। दृष्टि बदल जाती है। यह उपशम गुण आत्मा को अनेक दुःखों से बचाता है और कल्याण के मार्ग को प्रकट करता है। इस गुण की प्राप्ति के बिना जीव को सम्यग्दर्शन का लाभ नहीं हो सकता। मिथ्यात्व का उपशम हो जानेपर भी यदि अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया या लोभ इनमें से किसी का उदय हो तो सम्यक्त्व का नाश हो जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि 'उपशम' सम्यक्त्वी का प्रधान गुण है । ७०
स्वनिन्दा नामक गुण का स्वरूप
(अनुष्टुप्)
विद्यमाने गुणे श्रेष्ठे स्वात्मनि सुखदे सदा । स्वनिन्दां कुरुते तस्य स्यात् स्वनिन्दागुणः प्रियः । । ७१ । ।
विद्यमाने इत्यादिः- संसारावस्थायां सर्वेऽपि मनुजा गुणदोषभाजस्सन्ति । कश्चित् सर्वथा गुणरहितोऽपि न तथा सर्वथा दोषरहितोऽपि न । सम्यग्दृष्टेरपि स्वात्मनि दोषाः सन्ति गुणा अपि । स्वात्मनि सुखदे श्रेष्ठ गुणे विद्यमानेऽपि यो न तत्र दृष्टि ददाति, किन्तु स्वल्पमपि विद्यमानं दोषं दूरीकर्तुं यतते तस्स दोषनिमित्तेन स्वनिन्दामेव कुरुते । तस्य सद्दृष्टेः स स्वनिन्दानामा गुणः स्यात् ।७१।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org