SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकधर्मप्रदीप चतुर्गति परिभ्रमण ही संसार है। संसार रूप इस परिभ्रमण में यह जीव अनेक भाँति के दुःख उठाता है। यह संसार वृक्ष कर्ममूलक है। कर्मोदय से ही जीव चतुर्गति में परिभ्रमण करता है । इस दुःख मूलक संसार से उद्वेग उत्पन्न होना अर्थात् अरुचि उत्पन्न होना यही संवेगनामा गुण है। जिस बुद्धिमान् को संसारोत्पादक अधर्म में अरुचि होती है उसके दया, क्षमा, निरहंकार, सरलता, अपरिग्रहत्व और ब्रह्मचर्य आदि पवित्र गुणों में स्वयं प्रीति उत्पन्न होती है। ये दोनों ही प्रकार संवेग गुण के रूपान्तर हैं। यद्यपि सम्यग्दृष्टि सप्तभय रहित होता है तथापि वह संसार के दुःखों से भयभीत होता है। इन दोनों भयों में महान् अन्तर है । सप्त भय पर पदार्थ के निमित्त जन्य भ्रमवश मोहोदय से होते हैं, पर यह संवेग जनित भय स्वपदार्थ के यथार्थ बोध होने से तथा परपरणतिस्वरूप अपनी अज्ञानता पर खेद होने से पर के मोह के अभाव में होता है। इस प्रकार दोनों में महान् अन्तर है । सप्त भय त्याज्य हैं। उनका अस्तित्व मिथ्यात्व के अस्तित्त्व का सूचक है, किन्तु संसारपरिभ्रमण से भीरुता मोक्षसुख प्राप्ति के प्रति उत्साह और साहस प्रदान करता है। अतः वह भीरुता भी वीरता है। यही संवेग नामा प्रथम गुण है । ६८ । ९४ निर्वेग गुण का स्वरूप (इन्द्रवज्रा ) संसारदेहे विषये विरक्तो यः शुद्धचिद्रूपसुखेऽनुरक्तः । स्वानन्दमूर्त्तेः सुमतेः कृपाब्धेः स्यात्तस्य निर्वेगगुणः पवित्रः ।। ६९ ।। संसारेत्यादिः- भावस्त्वयम् - संसाराद् भीतितानिमित्तेन संवेगेन स जीवः संसारात् विषयसुखाच्च यदा विरक्तो भवति तथा निर्विकारस्वरूपे चैतन्यसुखे चानुरक्तो भवति तदा परमानन्दस्वरूपस्य तस्य दयामूर्तेर्निर्वेगनाम्नः पवित्रगुणस्य प्राप्तिर्भवति । स एव निर्वेगगुण इत्यर्थः। ६९ । प्रथम संवेग का स्वरूप बताया था कि संसार से भीरुता का नाम संवेग है। इस भीरुता का फल जीव की संसार, देह और विषयभोगों से विरक्ति है। जो पुरुष संसार की असारता, अनित्यता, और अशरणता को देखकर उससे विरक्त होता है, घृणास्पद देह के यथार्थ स्वरूप का चिन्तवन कर और कामिनियों की सुन्दरता को मल से भरे हुए सुवर्ण के घड़े की तरह समझकर काम भोगादिकों से अरुचि करने लगता है तथा पाँचों ही इन्द्रियों के विषयों के सुखों को अन्त में नीरस देखकर उनकी अभिलाषा से चित्तवृत्ति को हटाता है वही सम्यक् विचारवान् अपने परमानन्दस्वरूप, निरंजन, निर्विकार, कर्म कालिमारहित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy