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________________ नैष्ठिकाचार ९७ गर्दा-गुण का स्वरूप (अनुष्टुप्) धनादिकारणाद् गर्वः स्याच्चित्ते यदि दुःखदः। तन्निन्दाकरणं नूनं श्रीदो गर्हागुणः प्रियः।।७२।। धनादीत्यादि:- कदाचित् कर्मोदयात् धनादिकारणा धनप्राप्तिनिमित्तेन गुणप्राप्तिनिमित्तेनलोकप्रतिष्ठाप्राप्तिनिमित्तेन राज्याधिकारनिमित्तेन वा चित्ते यदि दुःखदः गर्वः गर्वोत्पत्तिः स्यात् तदा सद्दष्टेस्तत्कालमेव नूनं निश्चयेन तन्निन्दाकरणं श्रीदः कल्याणप्रदः प्रियश्च गर्हानामा गुणः स्यात् ।७२ । सम्यग्दृष्टि पुरुष को भी कदाचित् कर्मोदयवशात् धन की प्राप्ति होने से, अनेक गुणों की प्राप्ति हो जाने से, कीर्ति फैल जाने से, राज्य सम्बन्धी अधिकार बल से और अनेक विद्याओं में अपने को पारङ्गत देख करके गर्व आ सकता है। सुन्दरशरीर, यौवनावस्था, अनेक प्रकार की भोगोपभोग सामग्री की प्राप्ति, सुपुत्र का होना, आज्ञाकारी पुत्र का होना, रूपवती सुलक्षण पतिव्रता भार्या का पाना और अनेक प्रकार से सामाजिक या राजकीय सम्मान की प्राप्ति का होना इत्यादि अनेक कारण हैं जिनका गर्व मनुष्य को उत्पन्न होता है। उक्त प्रकार से गर्वोन्नत मनुष्यों के मध्य में रहनेवाले सम्यग्दृष्टि को भी कदाचिद् ये सब दुर्गुण उत्पन्न हो सकते हैं तथपि वह सदा आत्महित में सतर्क रहता है। अतः कभी गर्व उत्पन्न भी हो जाय तो तत्काल अपने गर्व की निन्दा करता है। यह परनिमित्तजन्य हो जानेवाले गर्व को दूर करने की प्रक्रिया ही सम्यग्दृष्टि का ‘गर्दा' नामक विशिष्ट गुण है। विशेषार्थ- सम्यग्दृष्टि सदा अपनी दृष्टि को आत्मगुणों की प्राप्ति की ओर रखता है। संसारिक वस्तुओं का भोग करते हुए भी वह उनको आत्मा के भोग योग्य नहीं मानता। यह संसार जिसमें केवल पुद्गल नृत्य करता है उसका संसार नहीं है। उसका संसार तो चैतन्यमय लोक है। वह उसमें ही रमण करना चाहता है। यद्यपि इस जड़ात्मक संसार से वह उद्विग्न है तथापि कर्मोदयवशात् उसे परित्याग करने में अपने को असमर्थ पाता है। उसकी अवस्था उस मनुष्य के समान है जो अचेतावस्था में बाँधकर जंगल में डाल दिया गया है। और चेतावस्था में आकर भी अपनी पराधीनता को देखकर, जानकर और उसके छूटने की अभिलाषा रखकर भी अपने को छुड़ा नहीं पाता। अतएव वहीं छटपटाता रहता है। धन, संपत्ति, वैभव और कुटुंब आदि परवस्तुओं में रमना नहीं चाहता, पर कर्मोदय के अधीन होने से इनका भोग करने के लिए लाचार होता है। ऐसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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