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________________ नैष्ठिकाचार ८९ स्वशरीररक्षणार्थं शस्त्राणि धारयन्ति। चौरतः स्वधनरक्षणार्थं गर्भगृहादिषु धनं निक्षिपन्ति। स्वरक्षार्थं मिथ्यापि वदन्ति। इत्यनेन प्रकारेण स्वात्मानं रक्षयितुं मिथ्यामार्गमवलम्बन्ते ते। यथार्थतस्तु धनादिकं पुद्गलद्रव्यमस्ति न तु जीवद्रव्येण तस्य कश्चित् सम्बन्धः। तथापि मोहजन्यभ्रमबुद्ध्या धनादिभिरेव स्वरक्षामामनन्ति। आत्मनस्तु धनं ज्ञानादिगुणा एव, तत्रैव तस्याधिकारोऽस्ति। एवं प्रकारेणात्मनस्तत्त्वं जाननेव स विज्ञानधनः स्वात्मानं क्रोधकामादिविकारतः रक्षति। स तु स्वस्य आत्मनः स्वात्मनि एव स्वात्मप्रयत्नेन रक्षां करोतीति तात्पर्यम्। नान्यो जीवः नान्यत्पुद्गलादिकं द्रव्यं वा तस्य रक्षां कर्तुं समर्थमस्ति। व्यवहारनयेनापि स्वकृतपुण्यकर्मणा विपत्तितो रक्षा भवति। पापं कुर्वतां भवत्यन्ते विनाश एव । अतिदुःखान्युत्पादयन्ति पापानि। इत्येवंप्रकारेण निजात्मरक्षां कुर्वतस्तस्य विज्ञानदिनकरस्य विवेकेन परिपूर्णः परिणामो भवत्यतः तस्य मनसि कदाचिदपि न स्यादरक्षाभयं क्वचित् । ६१।६२। ___ सात प्रकार के भयों में 'अरक्षा भय' भी एक है। मिथ्यात्व के द्वारा जिनकी बुद्धि मोहित है वे सदा ऐसी चिन्ताओं में निमग्न रहते हैं कि संसार में कोई मेरा रक्षक नहीं है। मेरी रक्षा कैसे हो? इस अरक्षा की चिन्ता को दूर करने के लिए वे अनेक पाप करते हैं। शरीर रक्षा के लिए शस्त्र रखते हैं। चोर आदि से रक्षा करने के लिए अपना धनादिक द्रव्य जमीन के भीतर गर्भगृह आदि बनाकर वहाँ छिपाते हैं। अनेक अपराधों को करते हुए भी अपराधों के दुष्फलों से बचने के लिए लोक के सामने मिथ्यावाद करते हैं। उचितानुचित प्रकार से अनेक प्रकार के परिग्रहण का सञ्चय करते हैं। इस प्रकार आत्मरक्षार्थ मिथ्यामार्ग का अवलम्बन करते हैं। निश्चयनय से विचार कीजिए तो धनादिक परद्रव्य हैं-पुद्गल द्रव्य हैं। जीवद्रव्य की रक्षा से उनका बिलकुल सम्बन्ध नहीं है। केवल मोहजन्य बुद्धि के भ्रमवश धनादि से लोक स्वात्मरक्षा मानता है। आत्मा का सच्चा धन ज्ञानादि गुण हैं। उनमें ही जीव का स्वाधिकार है। विज्ञान का धनी आत्मा आत्मतत्त्व के बाधक क्रोध व कामादि विकारों से स्वात्मा की रक्षा करता है। वह अपनी आत्मा की यथार्थ रक्षा अपने ही सत्प्रयत्न से अपने ही भीतर करता है। वह जानता है कि मेरे सिवाय अन्य कोई जीव या अन्य कोई पुद्गलादि द्रव्य मेरी रक्षा करने में सर्वथा असमर्थ है। व्यवहारनय से भी विचार किया जाय तो जीव के सत्प्रयत्नों द्वारा अर्जित पुण्यकर्म ही विपत्ति से रक्षा कर सकता है। पाप से तो केवल हानि ही है। पापी पुरुष तत्काल प्रसन्न भले ही हों पर अन्त में वे अपने को महान् दुःखों में फँसा हुआ पाते हैं। उक्त प्रकार से ज्ञानरूपी सूर्य के द्वारा जिनका विवेक पूर्णरीत्या जागृत हो गया है; वे सम्यग्दृष्टि ही स्वात्मरक्षा करने में समर्थ हैं। ऐसे महापुरुषों के कदाचित् और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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