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________________ श्रावकधर्मप्रदीप शरीर का प्राप्त होना ही जन्म है और उसका विनाश ही मरण है। जीवात्मा शरीर से बिल्कुल पृथक् लक्षणवाली वस्तु है। न तो जीव का कभी जन्म होता है और न मृत्यु ही। ऐसा तत्त्व निश्चित होनेपर भी मिथ्यात्व के उदय के वश संसारी प्राणी शरीर जन्म में स्वजन्म और शरीर के विनाश में अपना विनाश मान लेते हैं। उनकी ऐसी मिथ्या मान्यता ही उनके दुःख का मूल है। इस मिथ्याभावभासना से उन्हें मृत्यु का महान् भय उपस्थित होता है। भेदविज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष को शरीर में ऐसा कोई मोह नहीं होता। उसे यह निश्चय है कि इस जन्म में इस शरीर का नाश हो जाने पर भी इस अमर आत्मा को जन्मान्तर लेना पड़ेगा और वहाँ नवीन शरीर अवश्य प्राप्त होगा। जब तक मेराजीव कर्म से पराधीन है तब तक ऐसी अनेक योनियों में जन्म मरण करने होंगे। ____ मेरा यह जरा से जीर्ण शरीर छूटता है तो छूटने दो अब तो यह महारोगों का घर दुःख का निदान है, इससे छुड़ानेवाली और नवीन शरीर प्रदान करनेवाली मृत्यु मेरे साथ मित्रता का ही कार्य कर रही है। तब मृत्युसखा से भय कैसा? ऐसा विवेकपूर्ण भाव जिस शान्तिमूर्ति विवेकी पुरुष के हो उस चैतन्य तत्त्व के दर्शी महापुरुष को मृत्यु का भय अपने सन्मार्ग से कभी विचलित नहीं कर सकता। वह तीनों लोकों में निर्भय होकर विचरता है। सम्यक्त्व की यह अचिन्त्य महिमा है।६०। प्रश्न:-अरक्षाभयचिह्न मे किमस्ति वद सिद्धये। हे गुरो! अरक्षाभयस्य किं स्वरूपमस्ति तन्मे कथय यतः स्यात् मे सिद्धिः। हे गुरो! अरक्षाभय का स्वरूप कृपाकर बताइए जिसके परित्याग से मैं आत्मसिद्धि को प्राप्त कर सकूँ। आचार्य उत्तर देते हैं (उपजाति:) स्वात्मात्मना स्वात्मनि स्वात्मनो वा यथार्थतः कौ क्रियते स्वरक्षा । पुण्येन रक्षा व्यवहारदृष्टया पापेन कस्यापि विलोकिता न ।।६१।। यस्येति भावोऽस्ति विवेकपूर्णोऽरक्षाभयं तस्य भवेन्न चित्ते । निजात्मरक्षां हि निजात्मनैव प्रकुर्वतो ज्ञानदिवाकरस्य।।६२।।युग्मम्।। स्वात्मेत्यादि:- सुगमम् । तात्पर्यमेतत् सप्तभयेषु एकमस्ति अरक्षाभयमिति। नास्ति मम रक्षकः कश्चित्, कथं मे रक्षा स्यात् इति चिन्तया नाना पापानि कुर्वन्ति मिथ्यात्वबुद्धयः। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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