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________________ नैष्ठिकाचार ८७ मैंने अवश्य अनेक पुण्यो का सञ्चय किया है। ऐसी स्थिति में मैं कभी भी रोगी, दीन और दरिद्र नहीं हो सकता और न कभी असहाय रहूँगा। पाप सञ्चय करनेवाले पुरुष ही अपने दुष्कर्म के विपाकवश रोगी, दीन और चञ्चलचित्त होते हैं, ऐसा श्रीजिनेन्द्र का वचन है। यदि मैंने भी पूर्वजन्म में ऐसे पाप किए हैं तो मैं भी अवश्य ही रोगी और दुखी होऊँगा, फिर भी भय कैसा? पूर्वोपार्जित कर्म के फल भोगने में दीनता कैसी? ऐसा भय कायर पुरुष करते हैं। मुझ जैसा साहसी जिन वचन के दृढनिश्चयी पुरुष को कायर बनना शोभास्पद नहीं है। ऐसा विचार करनेवाले सम्यग्दृष्टि पुरुष के कभी भी वेदना सम्बन्धी भय नहीं होता। सम्यक्त्व की ऐसी ही महिमा है।५७।५८ । प्रश्नः-मरणभयचिह्न किं विद्यते मे गुरो वद। हे गुरो! मरणभयं भवति मिथ्यादृशस्तस्य स्वरूपं कथय। हे गुरुदेव! मरण भय क्या है और मिथ्यादृष्टि के उस मरणभय के कारण क्या परिणाम होते हैं। सम्यग्दृष्टि उस भय से कैसे विमुक्त रहता है, कृपाकर समझाइए। शिष्य के ऐसा प्रश्न करने पर सद्गुरु उत्तर देते हैं: (उपजातिः) यावत्प्रमोहो भुवि तावदेव जन्मापि मृत्युश्च भवेन्नरस्य । वा यस्य जन्मास्ति च तस्य मृत्युः प्रियः सखा मे नववस्तुदाता ।।५९।। यस्येति भावोऽस्ति विवेकपूर्णो मृत्योर्भयं तस्य भवेन दुष्टम् । चिद्रूपमूर्तेस्सुखशान्तिभोक्तुरहो ह्यचिन्त्यो महिमा त्रिलोके ।।६०।। - युग्मम्।। यावदित्यादिः- भावोऽयम् शरीरपरिग्रह एव जन्म। शरीरविनाश एव मृत्युः। शरीरं तु जीवात्मनस्सर्वथा पृथक् विभिन्नलक्षणकमस्ति। नास्ति जीवस्य जन्म मृत्युर्वा इत्येवं तत्त्वे सुनिश्चितेऽपि मिथ्यात्वोदयवशात्खलु संसारिणः प्राणिनः शरीरजन्मनि स्वजन्म तस्य विनाशे स्वविनाशं परिशीलयन्ति। एवं विपरीतबोधात्तेषां शरीरगलनादेव स्वमृत्योर्भयम् समुत्पद्यते। यथार्थतस्तु भेदविज्ञानिनः न कश्चिन्मोहः स्यात् शरीरे। स निश्चिनोति यत् वर्तमानशरीरस्य विनाशेऽपि जन्मान्तरे पुनरपि शरीरोत्पादनं भविष्यत्येव। यावत् खलु विधिपराधीनोऽहं तावत् नानाजन्ममरणसंकुले संसारे परिभ्रमणं स्यादेव। यदि जीर्णं जरया मम शरीरं तदा तु शरीरमेव मम महदुःखकारणमस्ति। मृत्युस्तु मम सखा वर्तते यज्जीर्णशरीरादुत्त्थाप्य नवशरीरं प्रवेशयति। कथं तस्मात् भयं स्यात् । इत्येवं विवेकपूर्णो भावो यस्य विद्यते तस्य शान्तमूर्तेः स्वचित्वमत्कारमात्रस्य विवेकिनः न कदापि मृत्युतो भयं भवति। ऊर्धाधोमध्यलोकेषु सर्वत्र निर्भयः। तस्य अचिन्त्यो महिमा लोकेऽस्ति।५९।६०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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