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________________ श्रावकधर्मप्रदीप प्रश्नः-वेदनामयचिह्नं किं विद्यते मे गुरो यद। हे गुरुदेव ! वेदनाभयस्य कानि चिह्नानि सन्ति इति कथय। हे गुरुदेव ! तृतीय वेदना भय के क्या लक्षण हैं उनका स्वरूप बताइए (अनुष्टुप्) यदि पुण्यं कृतं तर्हि कथं रोगी वाम्यहम् । भवत्येव सदा पापी रोगी दीनोऽतिचञ्चलः।।५७।। यस्येति तत्त्वतो भावस्तस्य तत्त्वार्थवेदिनः। न वेदनाभयं स्यात् कौ सदृष्टेमहिमाञ्चलः।।५८।। यदि पुण्यमित्यादि:- सुगमम् । भावार्थस्त्वयम्-संसारे खलु जीवानां वेदनातो भवति भयम् । माभूत् कश्चिद्रोगः मम। किं करिष्यामि रोगादिसन्निपाते जलोदरादौ क्षयादिके वा समुपस्थिते। कीदृशी महती वेदना तदा भविष्यति। कथमतिमात्रया सीदन्ति रोगिणः। न तेषां किञ्चिदपि सुखं सांसारिकं वैषयिकं वा। व्यर्थमेव तेषां यौवनं जीवितञ्च। इत्येवं प्रकारेण वेदयतस्तस्य मिथ्यादृष्टेः सदा नानाभयानि क्लेशयन्ति। सम्यग्दृष्टिस्तु सदा निर्भयो निरहंकारो भवति। यदि पूर्वजन्मनि मया पुण्यकार्याणि कृतानि, रोगिणां दरिद्राणां विकलाङ्गानां असहायानां दीनानां सेवया तदुपयुक्तसाहाय्येन यदि मया पुण्यानि सञ्चितानि तदा न स्यात् मम शरीरे कश्चिद्रोगः। नाहं कदाचिदपि असहायी भविष्यामि। पापिनस्तु स्वकर्मविपाकवशादेव लोके रोगिणोऽतिदीनाः चञ्चलचित्ताश्च भवन्ति। यस्यैवं निश्चयो वर्तते दृढहृदयस्य तस्य विमलदृष्टेः कथं स्यात् पृथिव्यां किंचिदपि वेदनाभयम् ? यथार्थतस्तु सम्यक्त्वस्य अति महिमा वर्तते येनासौ सदा निर्भयो विचरति लोके ५७।५८। संसार में प्रायः सभी साधारण प्राणियों के मन में इस प्रकार का अनागत भय बना रहता है कि मुझे कोई रोग न हो जाय। यदि मुझे जलोदर, क्षय और संग्रहणी आदि कोई भयंकर रोग हो गया तो मैं क्या करूँगा, कैसे अपने जीवन की रक्षा करूँगा? रोग अवस्था की उस महती वेदना को कैसे सहूँगा। देखो, विचारे इन रोगों के रोगी कितने दुःखी हैं, उनका यौवन और जीवन दोनों व्यर्थ हैं। वे जीवन से निराश पाले (हिमपात) से मारे हुए वृक्षों जैसा नीरस निष्फल जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इसी प्रकार जीवन मुझे भी भोगना पड़ेगा। इससे तो मरण अच्छा। ऐसे विचारों के द्वारा मिथ्यादृष्टि जनों के चित्त सदा क्लेशित, मोहित और भयभीत रहते हैं। किन्तु सम्यग्दृष्टि पुरुष सदा निर्भय रहता है। वह देह में ममत्व तथा अहंकार नहीं करता। वह जानता है कि यदि पूर्व जन्म में मैंने पुण्यकार्य किए हैं, रोगी, दीन, दरिद्र, अङ्गहीन और असहायों की सेवा और उनके लिए उपयुक्त उचित सहायता की है तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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