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________________ नैष्ठिकाचार महिमा है कि जिससे वह सम्यग्दृष्टि विपत्ति में भी सुखी और निर्भय तथा साहसी बना रहता है।५३।५४। प्रश्न:-परलोकभयस्यास्ति किं चिह्नं मे गुरो यद। हे गुरो! सप्तभयेषु परलोकसंबंधिनो भयस्य किं स्वरूपमस्ति इति मे कथय। हे गुरुदेव ! सात भयों में दूसरा परलोक सम्बंधी भय है उसका क्या स्वरूप है और उसका त्याग सम्यदृष्टि किस प्रकार करता है कृपया कहें। श्रीगुरु उत्तर देते हैं (अनुष्टुप्) भवेऽस्मिन् यत् कृतं किञ्चित् परस्मिन् भोक्ष्यते मया । स एव तत्त्वतः श्रीदो भावो यस्येति वर्तते ।।५५।। परलोकभयं तस्य न स्याद्विज्ञानचक्षुषः । शुद्धचिद्रूपमूर्तेः कौ ह्यगाधा महिमा मतः ।।५६।। भवेऽस्मिन्नित्यादि:- सुगमम् । तात्पर्यमेतत्-परलोकस्य भयं न कर्तव्यम्। मिथ्यादृष्टयः खलु एवं विचारयन्ति यत् परलोकोऽस्ति न वा? यदि नास्ति तदा मम नाश एव स्यात् । यद्यस्ति तर्हि किं भविष्यति परत्र। कस्मिन् जन्मनि गमिष्यामि? कीदृशी तत्र दशा भविष्यति? एवं चिन्तापरम्परया सीदन्ति भीताश्च भवन्ति। सम्यग्दृष्टिस्तु एवं निश्चिनोति यत् तदेव प्राप्यते परत्र यदत्र जन्मनि मयारभ्यते। तत् परमपरं वा किञ्चिदपि स्यात्। इच्छामि चेत् सुखं परत्र कर्तव्यं तथा सुचरितं मया। नास्ति भयस्य किञ्चिदपि कारणं परलोके। परलोकस्य निर्माणमस्मदधीनं वर्तते न तु पराधीनमस्ति। तदा कथं शोच्योऽहम्? स्वाधीनोऽहं स्वभाग्यनिर्माणाय। कस्मात् तहिं भीतिः स्यात्। शुद्धचैतन्यतत्त्वमालोकयतस्तस्य ज्ञाननेत्रस्य महान् महिमा इति।५५।५६। मिथ्यादृष्टि लोग ऐसा विचार करते हैं कि यथार्थ में परलोक है भी या नहीं। यदि नहीं हो तो मेरा नाश ही हो जायगा। यदि परलोक है तो मेरा परलोक में क्या होगा। किसी योनि में जाऊँगा, मेरी वहाँ कैसी दशा होगी? इस प्रकार की विषम चिन्ताओं से वह दुःखी तथा भयभीत होता है। सम्यग्दृष्टि पुरुष ठीक इसके विपरीत यह निश्चय करता है कि परलोक में वह होगा जैसा हम इस लोक में करेंगे। यदि हम परलोक में सुख चाहते हैं तो हमें इस लोक में सदाचार से रहना चाहिए। परलोक में भय का कोई भी कारण नहीं है। परलोक का निर्माण हमारे ही अधीन है, पराधीन नहीं है। तब मैं क्यों व्यर्थ चिन्ता करूँ। मैं अपने भाग्य का निर्माता हूँ। फिर भय किस बात का? शुद्ध चैतन्य तत्त्व का अवलोकन करनेवाले उस ज्ञाननेत्र पुरुष की बहुत बड़ी महिमा है। वह कभी परलोक सम्बन्धी भीति को पास नहीं आने देता है।५५।५६। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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