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________________ श्रावकधर्मप्रदीप क्वचित् अरक्षा का भय उत्पन्न नहीं होता। वे साहसी सदा प्रसन्नचित और निर्भय हो स्वात्मकल्याण के मार्ग पर बढ़ते जाते हैं । ६१।६२। ९० प्रश्न:-- -अगुप्तिभयचिह्नं किं विद्यते मे गुरो वद । . हे गुरो ! अगुप्तिभयस्य किं चिह्नं विद्यते इति मे कथय। हे गुरुदेव ! अगुप्ति भय के स्वरूप का भी प्रतिपादन कीजिए जिसे त्यागकर सम्यग्दृष्टि मुक्ति के पात्र होते हैं: (अनुष्टुप्) यावन्मे वर्तते पुण्यं चौराद्याः केऽपि मद्धनम् । न हरन्ति गजाश्वादि पतितं यत्र कुत्रचित् ।। ६३ ।। स्वात्मास्ति तत्त्वतो गुप्तः शुद्धचिद्रूपनायकः । यस्येति बोधदा बुद्धिस्तस्यागुप्तिभयं कुतः ।। ६४ । । युग्मम् ।। यावदित्यादिः– सुगमम् | भावस्त्वयम्-व्यवहारनयतस्तु एवं विचार्य यत् यावन्मे पुण्योदयः स्यात् न तावत् काचिन्मे हानिः स्यात् । यत्र कुत्रापि स्थापितं निहितं पतितं विस्मृतं वा मद्धनं गजादिकं अश्वादिकं सुवर्णादिकं वा न केचित् चौराः राजादयो वा हर्तुं समर्थाः भवन्ति । निश्चयनयतस्तु शुद्धचैतन्यज्ञानधनो जीवः सदा गुप्त एव न तस्य हानादिकं कर्तुं परद्रव्यादिकं समर्थमस्ति। इत्येवंप्रकारेण यस्य बोधदायिनी बुद्धिरस्ति तस्य कुतोऽपि अगुप्तिभयं न स्यात् । ६३/६४| व्यवहार नय से यह विचार करना चाहिए कि जब किसी भी जीव को पुण्यकर्म का तीव्रोदय है तब तक उसकी हानि करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। मेरा धनादिक हाथी, घोड़ा आदि द्रव्य या अन्य व्यवहारोपयोगी भोगोपभोग की सामग्री चाहे वह कहीं भी रखी हो, भूली हुई हो, पराधीन हो पर उसे न चोर ले जा सकते हैं न राजादिक ही छीन सकते हैं। प्रत्युत वे सब मेरे सहायक ही होंगे, विरोधक नहीं। हाँ, पुण्यक्षीण होने पर कितना भी उपाय करूँ, कितना भी अधिक भोगोपभोग को गुप्त रखूँ किन्तु मैं उन्हें बचाने में असफल रहूँगा। निश्चयनय की दृष्टि से विचारिए तो आत्मा शुद्धज्ञान धनवाला है, अनन्तगुणों का भण्डार है। वे गुण आत्मद्रव्य से कभी पृथक् नहीं हो सकते। कर्म का आवरण भले ही हो, पर वे कर्म मेरे आत्मगुणों का नाश करने में समर्थ नहीं हैं। जैसे मदिरा पुरुष को मोहित कर उसे अपने गृह धनादि से दूर कर सकती है, पर उन्हें नष्ट नहीं कर सकती वैसे ही मोह मदिरा जीव को भ्रम में डाले है जिससे जीव आत्मधन को भूलकर परद्रव्य पुद्गलादिक में ही स्वस्वरूप देखता है, पर वह आत्मा के परमधन गुणों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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