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________________ नैष्ठिकाचार पर यद्यपि संसार परिभ्रमणरूप चारों ही गतियों में मनुष्य देह श्रेष्ठ मानी गई है, ' वह जिस कारण से श्रेष्ठ है वह कारण है श्रेष्ठसंयम । इसकी प्राप्ति अन्य किसी भी गति में नहीं होती । तिर्यञ्चों में क्वचित् कदाचित् कथञ्चित् किसी को देशसंयम होने की सम्भावना रहती है तथापि परिपूर्ण संयम कभी नहीं होता। उसे प्राप्त करने की एकमात्र सामर्थ्य मानव देह में है और वह भी उच्चकुलीन पुरुष पर्यायाश्रित देह में। यदि मानव देह की उत्कृष्टता के उक्त कारण को छोड़कर शरीर के स्वरूपपर विचार किया जाय तो यह देह महान् अपवित्र है । जिस देह का बीज मल है अर्थात् जो पुरुष के और स्त्रियों के रजवीर्य रूपी मल से ही बनता है तथा मल को उत्पादन करना ही जिसका एकमात्र कार्य है। नवद्वार जिसके सदा मलप्रवाही हैं। उस शरीर को सुन्दर मानना ही मूर्खता है; फिर सुन्दर मानकर उसका घमण्ड करना तो महान् मूढ़ता है। मोही जन ही ऐसे घृणित शरीर को सुन्दर मानते तथा उसमें रमण करते हैं। विवेकी पुरुष उसमें कभी रमण नहीं करते। मिथ्यात्व के उदय से ही जीव हाड़ मांस चर्बी रक्त पीप आदि महान् दुर्गन्धित और अस्पृश्य पदार्थों के योग से बने इस शरीर को सजाते हैं और उसे सुन्दर मानते हैं। उसके लिए अच्छे-अच्छे पदार्थों की उपमा देकर अपने ज्ञाता हृदय को भी धोखा देकर अपना अकल्याण करते हैं। ८१ सम्यग्दृष्टि पुरुष जिनके हृदय से भ्रम दूर हो गया है वे वस्तु के ठीक-ठीक स्वरूप को जानते हैं। वे कभी भ्रम में नहीं पड़ते, वे झूठी उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं के जाल में पड़कर अपना वस्तुतत्त्व का ज्ञान गंदला नहीं करते। जब कि वे शरीर के वास्तविक रूप का ज्ञान रखते हैं तब ऐसी स्थिति में वे शरीर का मद भी कभी नहीं करते। वे जानते हैं कि यह मद संसार परिभ्रमण का मूल है। वे शरीर की उपयोगिता संयम के परिपालन में मानकर संयमधारण करते हैं। तपस्या के द्वारा इन्द्रिय विषय और कषायों का निग्रह कर वे आत्मशुद्धि के मार्ग में बढ़ते हैं तथा इस प्रकार स्वपरोपकार करते हुए अपना कालयापन करते हैं। यह कर्त्तव्य प्रत्येक मानव के लिए अनुकरणीय है । ५० प्रश्नः - किं लक्षणं वद गुरो च तपोमदस्य । गुरो ! तपोमदस्य किं चिह्नमस्ति ? कथय । गुरो ! तपमद कैसा होता है उसका क्या चिह्न है? कृपा कर कहें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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