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श्रावकधर्मप्रदीप
(उपजाति:) इच्छानिरोधस्तपसः सुचिह्न
ज्ञात्वेति चोक्तं सुखदं सुशान्त्यै। मोक्षस्य चेच्छापि भवस्य बन्धो
वद प्रभो! चान्यकथास्ति का कौ।।५१।। इच्छानिरोध इत्यादि:- संसारपरिभ्रमणदुःखवारणाय तपः कुर्वन्ति तपस्विनः । इच्छानिरोधः पञ्चेन्द्रियाणां विषयेषु स्वेच्छाया रोधनमेव तपसः चिह्न लक्षणमस्ति इति ज्ञात्वा सुशान्त्यै संसारदुःखशान्त्यर्थं तपः सुखदं उक्तम्। एवं सत्यपि “वयं तपस्विनः स्मः, को नाम वर्तते एवं दुष्करं तपः कर्तुं समर्थो मदन्यः” इत्येवंप्रकारेण तपसो मदो न कार्यः। इच्छा एव दुःखं वर्तते। इच्छारहितानां तु दुःखस्य मात्रापि न स्यात् । संसारमार्गेऽपि दृश्यते यत् अल्पेच्छावान् पुरुषः स्वेच्छां स्वल्पप्रयत्नेन साधयति सुखी च भवति। नैकेच्छावतां पुरुषाणां तु नैकविधप्रयत्नेनापि नेच्छाशान्तिर्भवति अतः स न स्वल्पयत्नेन सुखी भवति। अतएव सिद्धमेतत् यत् इच्छाया उत्पत्तिः एव दुःखोत्पत्तिः कौ पृथिव्यां अन्यकथा कास्ति दूरमास्ताम् , मोक्षस्यापि इच्छा भवस्य बन्धो बन्धहेतुः। अत इच्छानिरोधः कार्यः इति तात्पर्यम् । ५१ ।
पाँचों इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषा को स्वेच्छा से रोकना यह तप का सामान्य लक्षण है। संसार परिभ्रमण के गहन दुःखों से छूटने की अभिलाषा से तपस्वी पुरुष तप की आराधना करते हैं। उक्त अभिप्राय की पूर्ति के लिए तप करना श्रेयस्कर है। ऐसे तपस्वियों में अनेक ऐसे भी पुरुष हैं जिन्हें अपने द्वारा की जानेवाली उग्र तपस्या का गर्व उत्पन्न हो जाता है। वे यह कहने लगते हैं कि-हम तपस्वी हैं मेरे जैसा दुष्कर तप करने में मेरे सिवाय और कौन समर्थ है। किन्तु इस प्रकार का तपस्या का मद कभी नहीं करना चाहिए।
___ इच्छामात्र ही दुःख है। जो इच्छा रहित हैं उनके दुःख का लेश भी नहीं है। यह बात संसार प्रसिद्ध है कि अल्प इच्छावाला पुरुष स्वल्प प्रयत्न से अपनी इच्छा की पूर्ति करके सुखी हो जाता है और अनेक इच्छाओं वाला व्यक्ति अनेक प्रयत्नों से भी अपनी इच्छा पूर्ति नहीं कर पाता और दुःखी होता है। वह अपना शान्तिमय जीवन नहीं व्यतीत कर सकता। इससे यह सिद्ध है कि इच्छा का उत्पन्न होना दुःख का ही उत्पन्न होना है।
मोक्षप्राप्ति की अभिलाषा यद्यपि प्रशस्त इच्छा है। उसका अर्थ संसार के विषय भोगों की इच्छा से विमुक्त होना ही है, तथापि जब तक अन्य इच्छाओं के निरोध की तरह मोक्ष की भी अभिलाषा का निरोधकर एकमात्र दृष्टि आत्मविशुद्धि की ओर नहीं
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