SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकधर्मप्रदीप ऐश्वर्यमत्त व्यक्ति पांच महापातकों से भी नहीं डरता। वह महान् से महान् हिंसा, स्त्रीघात, बालघात, पुरुषघात, प्रतिघात तथा मुनिघात जैसी हिंसा को भी धन के बल से छिपा लेता है। बड़े-बड़े असत्य को भी सत्य स्थापित कर देता है। अनेक प्रकार के लेन-देन के जालों में दीन दुर्बल मनुष्यरूपी मछलियों को फांस कर ब्याज और महाब्याज से उन्हें निर्धन बनाकर उनका सर्वस्व हरण कर लेता है। कर-बल-छल से अन्य जनों का धनापहरण कर स्वयं महाजन और साहूकार अपने को प्रकट करता है। धन के बलपर दूसरों की कन्याओं का या वनिताओं का अपहरण कर उनका शील नष्ट करके भी स्वयं शीलवान् बनकर समाज में प्रतिष्ठा स्थापित करने का प्रयत्न करता है। संसार में ऐसा कोई महान् से महान् पातक नहीं जिसे धनमत्त पुरुष न कर सकता हो। यदि अन्य पाप मात्र पाप है तो धनमत्तता पापों का पिता है, पापों की खनि है, पापों की जननी है। अतः सब प्रकार के प्रयत्नों से अनर्थोत्पादक अहित कारक इस मद का त्यागकर धन का सदुपयोग भक्ति सहित विनयसहित जिनपूजा में लगाना शास्त्रों का उद्धार करना सुपात्रों को दान देना ज्ञानार्जन के कार्य में लगाना रोगियों की सेवा में खर्च करना ही परम श्रेयस्कर है और इससे ही धनप्राप्ति की सफलता है। ऐसा करनेवाला निरहंकारी पुरुष ही स्वात्मकल्याण कर सकता है यह जानना चाहिए।४९। प्रश्नः-शरीरमदचिह्नं किं विद्यते मे गुरो वद। किं तत् शरीरमदचिह्नमस्ति? हे गुरो कृपया ब्रूहि। हे गुरो! शरीरमद का क्या स्वरूप है? कृपया कहिए __(वसन्ततिलका) अन्नौषधादिसुखहेतुविशेषदानाद् देहं व्रतादिकरणे लभते समर्थम् । ज्ञात्वेति कायकुमदो भवदो न कार्यः स्वात्मान्यशुद्धिकरणे सततं स योज्यः।।५०।। अनौषधादित्यादि- संसारपरिभ्रमणरूपासु चतुर्गतिषु मध्ये मानवदेह एव संयमयोग्य इति कथयन्त्याचार्याः। अनौषधादिसुखहेतुविशेषदानाद् अन्नौषधादीनां सुखहेतुः सुखकरं यद् विशेषदानं तस्मात् व्रतादिकरणे मोक्षसाधनभूतव्रतोपवासादिविधाने समर्थं देहं शरीरं लभते इति ज्ञात्वा भवदः कायकुमदः संसारपरिभ्रमणरूपदुखस्य बीजभूतः कायमदः कदापिन कार्यः। किन्तु स्वात्मान्यशुद्धिकरणे स्वात्मशुद्धये परोपकृतये च सततं स देहः योज्यः।५०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy